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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स्तोमा॑ आसन्प्रति॒धय॑: कु॒रीरं॒ छन्द॑ ओप॒शः । सू॒र्याया॑ अ॒श्विना॑ व॒राग्निरा॑सीत्पुरोग॒वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तोमाः॑ । आ॒स॒न् । प्र॒ति॒ऽधयः॑ । कु॒रीर॑म् । छन्दः॑ । ओ॒प॒शः । सू॒र्यायाः॑ । अ॒श्विना॑ । व॒रा । अ॒ग्निः । आ॒सी॒त् । पु॒रः॒ऽग॒वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तोमा आसन्प्रतिधय: कुरीरं छन्द ओपशः । सूर्याया अश्विना वराग्निरासीत्पुरोगवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तोमाः । आसन् । प्रतिऽधयः । कुरीरम् । छन्दः । ओपशः । सूर्यायाः । अश्विना । वरा । अग्निः । आसीत् । पुरःऽगवः ॥ १०.८५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सूर्यायाः) कान्तिमती नववधू के (प्रतिधयः) प्रतिधारण करनेवाले सहयोगी (स्तोमाः) स्तोतव्य गुण (ओपशः) उपशयन करने योग्य-पलङ्ग (कुरीरं छन्दः) आचरण करने योग्य मनोभाव है (अश्विना वरा) जीवन में वरने के योग्य प्राण-अपान हैं (पुरोगवः-अग्निः-आसीत्) आगे प्रेरित करनेवाला परमात्मा या विवाहकाल की अग्नि है ॥८॥

    भावार्थ

    वधू के उत्तमगुण उसका साथ दिया करते हैं, आचरणीय मनोविचार उसको विश्राम देनेवाले हैं, प्राण-अपान दोनों जिसके ठीक-ठीक चलते हैं, वह सुरक्षित रहती है। परमात्मा को जो अपने सम्मुख आस्तिक भावना से रखती है या विवाहसम्बन्धी अग्नि को पति-पत्नीसम्बन्ध को प्रकाश में बनानेवाली आदर्श समझती है, उसका गृहस्थ सफल है ॥८॥

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    विषय

    वधू के योग्य पति को भेट, व्यवहार और दोनों का अश्वी होने का रूप।

    भावार्थ

    (सूर्यायाः) नव वधू जो सन्तान की कामना से उषाकाल के तुल्य अनुराग वाली होकर पति के साथ जाती हो उसके (स्तोमाः) उत्तम २ स्तुति योग्य गुण और उत्तम २ उपदेश और स्तुत्य वचन ही (प्रति-धयः) उसके प्रति आदरार्थ प्रस्तुत पदार्थ के तुल्य हों, वा वे ही उसके प्रतिपालक हों, सर्वत्र सब उसको उत्तम वचन ही कहें। और (छन्दः) उसकी मनोकामना उस समय (कुरीरं ओपशः) अपने पति के समीप शयन और कर्त्तव्य कर्म वा मैथुन-धर्म से सन्तान उत्पत्ति (आसीत्) हो। उस समय वे दोनों (अश्विना) एक दूसरे के भोग्य भोक्ता रूप से वा एक दूसरे के हृदय में व्यापक वा उत्तम अश्वों से युक्त, जितेन्द्रिय होकर (वरा) एक दूसरे का वरण करने वाले होते हैं। और उनके (पुरः-गवः) आगे चलने वाला वा उनके समक्ष वाणी को प्रकट करने वाला (अग्निः आसीत्) अग्रणी, नायक वा ज्ञानवान् पुरुष हो। अर्थात् वधू के आगे २ उसका पति ही चले, वह अपने पति का ही अनुसरण करे। अथवा उन दोनों को समस्त मार्ग दिखाने और उपदेश करने वाला विद्वान् पुरोहित हो॥

    टिप्पणी

    कुरीरं—क्रियते इति कुरीरम् मैथुनं वा इति दयानन्द उणादिभाष्ये। ओपशः—आङ्उपपूर्वात् शेतेरसुन्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    साथी का ढूँढ़ना

    पदार्थ

    [१] (स्तोमाः) = प्रभु के स्तोत्र ही (प्रतिधयः) = [ प्रतिधि = food] भोजन (आसन्) = थे। जिस प्रकार अन्न का भोजन शरीर की पुष्टि का कारण बनता है, उसी प्रकार प्रभु के स्तोत्र इसकी अध्यात्म पुष्टि का कारण बनते हैं । (छन्दः) = वासनाओं से बचानेवाले [छद् अपवारणे] वेद-मन्त्र ही इसके (कुरीरम्) = शिरोवस्त्र व (ओपशः) = शिरोभूषण थे। इनके द्वारा ही उसके मस्तिष्क की शोभा थी । [२] इस (सूर्यायाः) = सूर्या के (अश्विना) = माता-पिता (वरा) = इसके साथी का वरण [चुनाव] करनेवाले थे। उन्होंने सूर्या के जीवनसंगी के ढूँढ़ने का काम प्रारम्भ किया। उनके इस कार्य में (अग्निः) = ज्ञानी ब्राह्मण ही (पुरोगवः) = इनका अगुआ, पथप्रदर्शक (आसीत्) = था । इनका कुलपुरोहित इनको इस कार्य में मदद करनेवाला हुआ । वस्तुतः इनके लड़कियों के आचार्य ही अग्नि हैं । वे इनके शिक्षक होने के कारण इनके गुण-कर्म-स्वभाव से परिचित होने से ठीक चुनाव कर पाते हैं। वे आचार्य परामर्श देते हैं। उस परामर्श के अनुसार माता-पिता देखभाल करते हैं और अन्त में सन्तानों की स्वीकृति होने पर ये सम्बन्ध परिपक्व हो जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - स्तोत्र ही सूर्या के भोजन बने । वेद-मन्त्र 'शिरोवस्त्र व शिरोभूषण' हुए। अब माता-पिता ने ज्ञानी आचार्य की सहायता से इस सूर्या के जीवन-साथी को ढूँढना प्रारम्भ किया ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सूर्यायाः प्रतिधयः स्तोमाः-आसन्) तस्या नववध्वाः प्रतिधारकाः सहयोगिनः स्तोतव्या गुणाः सन्ति (ओपशः कुरीरं छन्दः) आ-उपशः-समन्तादुपशयनपर्यङ्कः करणीयमाचरणीयं मनोवृत्तम् “कृञ उच्च ईरन्” [उणा० ४।३३] (अश्विना वरा) जीवने वरयितव्यौ मातापितराविव प्राणापानौ स्तः “अश्विनौ प्राणापानौ” [यजु० २१।६० दयानन्दः] (पुरोगवः-अग्निः-आसीत्) पुरोगन्ता परमात्मा यद्वा वैवाहिकोऽग्निरस्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Hymns of adoration are the axle of her chariot wheels, music of the hymns, her head scarf and cushion, the Ashvins, prana and udana energies, are friends of the groom, and Agni is the first call of maturity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वधूचे उत्तम गुण तिला साथ देतात. आचरणीय मनाचे विचार तिला विश्राम देणारे आहेत. प्राण-अपान दोन्ही व्यवस्थित चालतात. ती सुरक्षित राहते. जी परमेश्वराबद्दल आस्तिक भावना बाळगते किंवा विवाहासंबंधी अग्नी व पती-पत्नी संबंध व्यवस्थित ठेवण्यात आदर्श मानते तिचाच गृहस्थाश्रम सफल होतो. ॥८॥

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