ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 14
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सूर्याविवाहः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यद॑श्विना पृ॒च्छमा॑ना॒वया॑तं त्रिच॒क्रेण॑ वह॒तुं सू॒र्याया॑: । विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद्वा॑मजानन्पु॒त्रः पि॒तरा॑ववृणीत पू॒षा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒श्वि॒ना॒ । पृ॒च्छमा॑नौ । अया॑तम् । त्रि॒ऽच॒क्रेण॑ । व॒ह॒तुम् । सू॒र्यायाः॑ । विश्वे॑ । दे॒वाः । अनु॑ । तत् । वा॒म् । अ॒जा॒न॒न् । पु॒त्रः । पि॒तरौ॑ । अ॒वृ॒णी॒त॒ । पू॒षा ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदश्विना पृच्छमानावयातं त्रिचक्रेण वहतुं सूर्याया: । विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अश्विना । पृच्छमानौ । अयातम् । त्रिऽचक्रेण । वहतुम् । सूर्यायाः । विश्वे । देवाः । अनु । तत् । वाम् । अजानन् । पुत्रः । पितरौ । अवृणीत । पूषा ॥ १०.८५.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्) जब (अश्विना) तेजस्विनी वधू के शरीर में व्यापी प्राण अपान स्त्री पुरुष (सूर्यायाः) वधू के (वहतुम्) विवाहफल को (पृच्छमानौ) पूछते हुए जैसे (त्रिचक्रेण) हृदय में वर्तमान सत्त्व रज तम गुणवाले मन के द्वारा (अयातम्) प्राप्त करो (विश्वेदेवाः) सब इन्द्रियाँ (वाम्) तुम दोनों को (तत्-अनु-अजानन्) अनुकूल होती हैं (पितरौ) मातापिता रूप वधू को और वर वधू को (पूषा पुत्रः) भावी जीवन का पोषणकर्ता पुत्र प्राप्त होता है ॥१४॥
भावार्थ
नव वधू को विवाह का फल क्या है ? इसकी विवेचना मन में होती है, यही उत्तर सामने आता है−भावी जीवन के रक्षक पुत्र की उत्पत्ति। वैदिक दृष्टि से पुत्रों की उत्पत्ति के लिये विवाह किया जाता है ॥१४॥
विषय
सूर्या का त्रिचक्र रथ।
भावार्थ
(यत्) जब हे (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री-पुरुषो! वा वर वधू आप दोनों (पृच्छमानौ) अपने पूज्य जनों से प्रश्न करते हुए (त्रि-चक्रे) तीन चक्र के रथ से (सूर्यायाः) उषा के समान कान्ति एवं अनुराग वाला कन्या के (वहतुम्) विवाह को लक्ष्य कर (अयातम्) प्राप्त होओ तब (विश्वे देवाः) सब विद्वान् धार्मिक लोग (तत्) उस विवाह की (अनु अजानन्) अनुमति देवें, क्योंकि इसी विधि से (पूषा) सब को पालन-पोषण करने और वंश की वृद्धि करने वाला (पुत्रः) पुत्र (पितरौ) माता पिता दोनों को (अवृणीत) प्राप्त होता है। वरवधू वा स्त्री पुरुष के ‘त्रिचक्र रथ’ का वर्णन आगे स्पष्ट होगा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
युवक द्वारा नये माता-पिता का वरण
पदार्थ
[१] (यत्) = जिस समय (अश्विना) = लड़के के माता-पिता [ पति - पत्नी] (सूर्यायाः) = सूर्या के (वहतुम्) = विवाह के दहेज को (पृच्छमानौ) = चाहते हुए [पूछते हुए - ask for ] (त्रिचक्रेण) = तीन चक्रों [चक्करों] से (अयातम्) = आते हैं । उस समय (वाम्) = आप दोनों के (तत्) = उस कार्य की (विश्वे देवाः) = सब देव - समझदार लोग, साथ आये हुए अनुभवी वृद्ध सज्जन (अनु अजानन्) = अनुज्ञा दें । अर्थात् यह कार्य सुचारुरूपेण सम्पन्न हो जाए, किसी प्रकार का पारस्परिक लेन-देन का झगड़ा न हो । [२] और उस समय यह (पूषा) = अपना पोषण करनेवाला (पुत्रः) = वृत युवक (पितरौ अवृणीत) = कन्या के माता-पिता को माता-पिता के रूप में वरे । अर्थात् अपने माता-पिता की उपस्थिति में आज से वह इन वधू के माता-पिता को भी अपने माता-पिता के रूप में देखे । [३] विवाह कार्य में वरपक्ष के माता-पिता सामान्यतः तीन चक्कर लगाते हैं। पहले चक्कर में तो वे कन्यापक्ष के लोगों के विषय में व कन्या के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी परिचित मित्र के यहाँ चुपके से आते हैं। उस समय अन्य कोई व्यक्ति उनके साथ नहीं होता। ये गुप्तरूप से बातों को जानकर लौट जाते हैं। अब सम्बन्ध ठीक हो जाने पर 'वस्तु' के लिये दूसरा चक्कर लगता है। इस समय विरादरी के व नगर के अन्य सज्जन भी साथ होते हैं। तीसरा चक्कर विवाह कार्य के लिये होगा। मन्त्र में 'त्रिचक्रेण' शब्द से इन चक्करों का संकेत हुआ है।
भावार्थ
भावार्थ - जब वर के माता-पिता बहुत को लेने के लिये आते हैं तो उनके साथ अन्य व्यवहार कुशल व्यक्ति [देव] भी होते हैं । वे सारे कार्य को सुन्दरता से पूर्ण करा देते हैं । इस समय युवक अपने भावी श्वश्रूश्वशुर को माता-पिता के रूप में वरता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्) यदा (अश्विना) तेजस्विन्या वध्वाः शरीरे व्यापिनौ प्राणापानौ स्त्रीपुरुषौ वा (सूर्यायाः-वहतुं पृच्छमानौ) तस्या-वध्वाः-विवाहफलं पृच्छमानाविव (त्रिचक्रेण-अयातम्) हृदयस्थसत्त्वरजस्तमोमयेन मनसा प्राप्नुतं (विश्वेदेवाः-अनु तत् वाम्-अजानन्) सर्वेन्द्रियाणि खल्वप्यनुमोदयन्ति युवयोरनुकूलानि भवन्ति (पितरौ पूषा पुत्रः-अवृणीत) मातापितरौ वधूवरौ भाविजीवनस्य पोषयिता पुत्रः प्राप्तवान् ॥१४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Ashvins, married couple, when you come together by the three wheeled mental chariot of Sattva, Rajas and Tamas constituents of personality in balance, asking for fulfilment of the wedding of Surya, let all the Vishvedevas, nobilities around and the mind and senses within, know and approve your intent and purpose, and then let Pusha, future progeny for sustenance, select the life giving parents for the arrival.
मराठी (1)
भावार्थ
नववधूला विवाहाचे फळ काय मिळते? त्याची विवेचना होताच हे उत्तर समोर येते - भावी जीवनाचा रक्षक पुत्राची उत्पत्ती । वैदिक दृष्टीने पुत्राच्या उत्पत्तीसाठी विवाह केला जातो. ॥१४॥
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