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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 47
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    सम॑ञ्जन्तु॒ विश्वे॑ दे॒वाः समापो॒ हृद॑यानि नौ । सं मा॑त॒रिश्वा॒ सं धा॒ता समु॒ देष्ट्री॑ दधातु नौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । अ॒ञ्ज॒न्तु॒ । विश्वे॑ । दे॒वाः । सम् । आपः॑ । हृद॑यानि । नौ॒ । सम् । मा॒त॒रिश्वा॑ । सम् । धा॒ता । सम् । ऊँ॒ इति॑ । देष्ट्री॑ । द॒धा॒तु॒ । नौ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समञ्जन्तु विश्वे देवाः समापो हृदयानि नौ । सं मातरिश्वा सं धाता समु देष्ट्री दधातु नौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । अञ्जन्तु । विश्वे । देवाः । सम् । आपः । हृदयानि । नौ । सम् । मातरिश्वा । सम् । धाता । सम् । ऊँ इति । देष्ट्री । दधातु । नौ ॥ १०.८५.४७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 47
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विश्वे देवाः) सभी विद्वान् या प्राण (नौ हृदयानि) हम वर-वधू के मन-बुद्धि-चित्त-अहङ्कारों को (समञ्जन्तु) संयुक्त करें (आपः सम्) आप्तजन तथा आप्त व्याप्त शरीर के रस संयुक्त करें (मातरिश्वा सम्) माता के समान जीवनदाता परमात्मा या प्राणवायु संयुक्त करें (धाता देष्ट्री नौ-उ-सम्) हम दोनों का धारण करनेवाला अन्न, ज्ञान, वृद्धवंश्य संयुक्त करे ॥४७॥

    भावार्थ

    गृहस्थ में वर-वधू के पहुँच जाने पर विद्वान् जन तथा आप्त जीवन्मुक्त उनको परस्पर मेल में रहने के लिये उपदेश दें, परमात्मा भी उनके अन्दर मिलकर रहने की भावना उत्पन्न करे तथा उनके प्राण और शरीररस एक-दूसरे के अनुकूल हो जाएँ ॥४७॥

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    विषय

    वर-वधू का परस्पर एक हृदय और एकांग होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (विश्व देवाः) समस्त विद्वान्, ज्ञानी, पूज्य पुरुष (सम् अंजन्तु) एकत्र संगत हों और वे सूर्य की किरणों के तुल्य सब व्यवहारों को स्पष्ट रूप से प्रकाशित करें। (आपः) जलों के समान आप्तजन (नौ) हम दोनों वर वधू के (हृदयानि) हृदय के समस्त भावों को (सम् अञ्जन्तु) मिलावें, मिला जानें। (मातरिश्वा) प्राण वायु देह, पार्थिव शरीर में गति करने वाला (नौ सं दधातु) हम दोनों को एक साथ मिलावे। (धाता) धारण पोषण करने वाला अन्न (नौ) हम दोनों को (सं दधातु) परस्पर एक साथ जोड़े। (देष्ट्री) उपदेश देने वाली माता के तुल्य वेदवाणी (नौ सं दधातु) हम दोनों को परस्पर एक साथ मिलावे। इत्यष्टाविंशो वर्गः॥ इति तृतीयोऽध्यायः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पति-पत्नी के हृदयों की एकता

    पदार्थ

    [१] (विश्वे देवा:) = सब देव (नौ) = हमारे (हृदयानि) = हृदयों को (समञ्जन्तु) संगत करें। दिव्य गुणों की वृद्धि पारस्परिक प्रेम को बढ़ाने का प्रथम साधन है। (आप:) = जल (सम्) = [अञ्जन्तु] = हमारे हृदयों को संगत करें। हृदयैक्यता के लिये आवश्यक है कि पति-पत्नी पानी की तरह शान्त मस्तिष्कवाले तथा मधुरस्वभाववाले हों। पानी स्वभावतः शीतल है, ये भी ठण्डे मिजाज के हों । पानी मधुर है, ये भी मधुर स्वभाववाले बनें। [२] (मातरिश्वा) = वायु-शरीरस्थ प्राण, (सम्) = इनके हृदयों को मिलानेवाला हो। प्राणसाधना के द्वारा प्रेम का अभिवर्धन होता है। (धाता) = सबका धारण करनेवाला प्रभु (सम्) = इनको परस्पर एक करे । प्रभु स्मरण की वृत्ति पवित्रता के संचार के द्वारा प्रेम को बढ़ाती है । [३] (देष्ट्री) = जीवन के कर्त्तव्यों का निर्देश करनेवाली वेदवाणी (उ) = भी (नौ) = हमारे (संदधातु) = हृदयों का सन्धान करनेवाली हो। वेदवाणी के अनुसार कर्त्तव्यों का पालन करने पर परस्पर प्रेम में कभी कमी नहीं आती।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति पत्नी के हृदयों की एकता के लिये आवश्यक है कि - [क] वे दिव्यगुणों को अपने में बढ़ाएँ, [ख] जल की तरह शान्त व मधुर बने, [ग] प्राणसाधना करें, [घ] प्रभु- स्मरण की वृत्तिवाले हों, [ङ] वेदवाणी के अनुसार जीवन को बनाएँ । यह सारा सूक्त गृहस्थ के सब पहलुओं पर बड़ी सुन्दरता से प्रकाश डालता है। अगले सूक्त के ऋषि 'इन्द्र, इन्द्राणी, व वृषाकपि' हैं, 'इन्द्र' परमैश्वर्यशाली प्रभु हैं, इनका उपासन करनेवाला ऋषि भी 'इन्द्र' है। 'इन्द्राणी' प्रकृति व प्रभु का सामर्थ्य है, उसकी ओर झुकनेवाली ऋषिका भी 'इन्द्राणी' है। इनके सन्तान के तुल्य जीव 'वृषाकपि' है, जो शक्तिशाली है और वासनाओं को कम्पित करके दूर भगानेवाला है, वस्तुतः वासनाओं को कम्पित करके दूर भगाने के कारण ही वह शक्तिशाली बना है 'वृषाकपि' हुआ है। सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार है-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विश्वेदेवाः-नौ हृदयानि) सर्वे विद्वांसः प्राणा वा “प्राणा वै विश्वेदेवाः” [श० १४।२।२।२७] आवयोर्वधूवरयोर्हृदयानि-मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारनामकान्तःकरणानि “हृदयम्-अन्तःकरणम्” [यजु० ११।३९ दयानन्दः] (समञ्जन्तु) सङ्गमयन्तु (आपः सम्) आप्ता जनाः “मनुष्या वा आपश्चन्द्राः” [श० ७।३।१।२०] आप्ता व्याप्ता शरीररसाः सङ्गमयन्तु (मातरिश्वा सम्) मातेव जीवनदाता परमात्मा प्राणवायुर्वा सङ्गमयन्तु (धाता देष्ट्री नौ-उ-सम्) आवयोर्भार्यापत्योर्धारयिता अन्नज्ञानजीवनदाता वृद्धो वंश्यः “देष्ट्रं दान यस्यास्ति स देष्ट्री” “अत इनिठनौ” [अष्टा० ५।२।११५] इति ‘इनि’ प्रत्ययो मतुबर्थीयः सङ्गमयतु ॥४७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Listen and know all ye Vishvedevas, divinities of nature and nobilities of humanity, like the waters of two streams our hearts and mind are one. May the Vayu join us as one personality. May the lord controller of the world make us one personality. May mother Sarasvati of the divine voice join and proclaim us as one. May the Vishvedevas join and integrate our hearts and minds into one inseparable personality.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वरवधूने गृहस्थाश्रमात प्रवेश केल्यावर विद्वान व आप्त जीवनमुक्तांनी त्यांना परस्पर मिळून मिसळून राहण्याचा उपदेश करावा. परमेश्वरानेही त्यांच्यामध्ये ऐक्याची भावना निर्माण करावी. वंशातील वृद्ध पुरुषानेही मिळून मिसळून राहण्याचा उपदेश करावा व त्यांचे प्राण आणि शरीर रस एकमेकांसाठी अनुकूल असावे. ॥४७॥

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