ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 3
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सोमः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सोमं॑ मन्यते पपि॒वान्यत्स॑म्पिं॒षन्त्योष॑धिम् । सोमं॒ यं ब्र॒ह्माणो॑ वि॒दुर्न तस्या॑श्नाति॒ कश्च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑म् । म॒न्य॒ते॒ । प॒पि॒ऽवान् । यत् । स॒म्ऽपिं॒षन्ति॑ । ओष॑धिम् । सोम॑म् । यम् । ब्र॒ह्माणः॑ । वि॒दुः । न । तस्य॑ । अ॒श्ना॒ति॒ । कः । च॒न ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमं मन्यते पपिवान्यत्सम्पिंषन्त्योषधिम् । सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नाति कश्चन ॥
स्वर रहित पद पाठसोमम् । मन्यते । पपिऽवान् । यत् । सम्ऽपिंषन्ति । ओषधिम् । सोमम् । यम् । ब्रह्माणः । विदुः । न । तस्य । अश्नाति । कः । चन ॥ १०.८५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पपिवान्) पीनेवाला (सोमं मन्यते) उसे सोम समझता है (यत्) कि (ओषधिं सम्पिषन्ति) जिस ओषधि को सम्यक् पीसते हैं-उसका रस निकालते हैं (यं सोमम्) जिस सोम-चन्द्रमा को (ब्रह्माणः-विदुः) ज्योतिषी लोग जानते हैं (तस्य) उसको (कश्चन न अश्नाति) कोई भी नहीं खाता है, नहीं पीता है ॥३॥
भावार्थ
सोम एक ओषधि है, जो पृथिवी पर होती है, जिसे पीस कर पीते हैं। दूसरे सोम चन्द्रमा को कहते हैं, ज्योतिषी-खगोलशास्त्री जानते हैं, जो आकाशीय सोम है, वह चन्द्रमा है, उसे कोई मनुष्य नहीं पी सकता ॥३॥
विषय
सोमपान का महत्व। वेदज्ञान सोमपान।
भावार्थ
(पपिवान्) पान करने वाला, (सोमं मन्यते) सोम उसी को मानता है (यत्) जो (ओषधिं सम्पिंषन्ति) ओषधि को पीसते और कूटते हैं, उसका रस पान करते हैं। परन्तु (यं सोमं) जिस सोम को (ब्रह्माणः) ब्रह्म, वेद के जानने वाले, वा ब्रह्म के उपासक ब्रह्म का आचरण करने वाले ब्रह्मचारी लोग (विदुः) जानते हैं, (तस्य) उसको (कः चन न अश्नाति) और कोई भी मुख द्वारा खा नहीं सकता है। उस ज्ञान और वीर्य रूप सोम वा अध्यात्म में आनन्दमय सोम को अर्थात् तेज, दीर्घायु और हृदयनिष्ठ आनन्द को वे स्वयं ही अपने जीवन में आनन्द, पुत्र और अमृत तत्व के रूप में प्राप्त करते हैं। इस सोम के विषय में गोपथ ब्राह्मण (पू० २। ९) में लिखा है—वेदानां दुह्यं भृग्वंगिरसः सोमपानं मन्यन्ते। सोमात्मकोयं वेदः। तदप्येतद् ऋचोक्तं सोमं मन्यते पपिवान् इति। वेदों से प्राप्त करने योग्य ज्ञान को विद्वान् भृगु अर्थात् तपस्वी वेदवाणी के धारक ज्ञानी अंगिरस जन सोमपान करना जानते हैं। वेद ही सोम रूप हैं। ‘सोमं मन्यते पपिवान्’ इस मन्त्र ने इसी का प्रतिपादन किया है। इस वेद को ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य पालन करके ही प्राप्त करते हैं। अथर्व० का १४। १। ३॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
वास्तविक सोमपान
पदार्थ
[१] 'सोम ओषधीनामधिराजः ' गो० उ० १ । १७, 'सोम वीरुधां पते' तै० ३ । ११ । ४ । १, 'गिरिषु हि सोमः ' श० ३ । ३ । ४ । ७ इन ब्राह्मण ग्रन्थों के वाक्यों से यह स्पष्ट है कि सोम एक लता है जो पर्वतों पर उत्पन्न होती है, यह अत्यन्त गुणकारी है, परन्तु प्रस्तुत प्रकरण में सोम का भाव इस वानस्पतिक ओषधि से नहीं है। यहाँ तो 'रेतः सोमः ' कौ० १३ । ७ के अनुसार वीर्यशक्ति ही सोम है । मन्त्र में कहते हैं कि (यत्) = जो (ओषधिम्) = ओषधि को (संपिंषन्ति) = सम्यक् पीसते हैं और उसका रस निकालकर (मन्यते) = मानते हैं कि (सोमं पपिवान्) = हमने सोम पी लिया है, यह उनकी धारणा ठीक नहीं। [२] (यं सोमम्) = जिस सोम को (ब्रह्माण:) = ज्ञानी पुरुष ही (विदुः) = जानते हैं तस्य उस सोम का कश्चन इन ओषधि रस पीनेवालों में से कोई भी (अश्वाति) = ग्रहण नहीं करता है। सोम तो शरीर में उत्पन्न होनेवाला वीर्य है। उसका रक्षण ज्ञानी पुरुष ही करते हैं, यही सच्चा सोमपान है। ज्ञान संचय में प्रवृत्त पुरुष इस सोम को अपनी ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाता है और इसकी ऊर्ध्वगति के द्वारा ब्रह्म साक्षात्कार के योग्य बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमलता के रस का पान सोमपान नहीं है। वीर्य का रक्षण ही सोमपान है। इस सोमपान को भौतिक प्रवृत्तिवाला पुरुष नहीं कर पाता । इस सोमपान को करनेवाला ज्ञानी ही होता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पपिवान् सोमं मन्यते) पानकर्ता सोमं तं मन्यते (यत् ओषधिं संपिंषन्ति) यतो ह्योषधिं सम्यक् पिष्ट्वा पिबन्ति (यं सोमं ब्रह्माणः-विदुः) यं सोमं चन्द्रमसं ब्रह्माणो ज्योतिर्विदो जानन्ति (तस्य कश्चन न अश्नाति) तं कोपि न भुङ्क्ते न पिबति “अथैषापरा भवति चन्द्रमसो वै तस्य वा” [नि० ११।४] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The person who drinks the soma juice feels that the herb which they crush and squeeze for the juice is soma. But the Soma which the divine sages know and realise no one can drink like that.
मराठी (1)
भावार्थ
सोम एक अशी औषधी आहे जी पृथ्वीवर उगवते, जिचा रस काढून पितात. सोम चंद्राला ही म्हणतात. ज्योतिषी खगोलशास्त्री हे जाणतात की जो आकाशातील सोम आहे, तो चंद्र आहे. त्याला कोणी मनुष्य पिऊ शकत नाही. ॥३॥
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