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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 35
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    आ॒शस॑नं वि॒शस॑न॒मथो॑ अधिवि॒कर्त॑नम् । सू॒र्याया॑: पश्य रू॒पाणि॒ तानि॑ ब्र॒ह्मा तु शु॑न्धति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽशस॑नम् । वि॒ऽशस॑नम् । अथो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽवि॒कर्त॑नम् । सू॒र्यायाः॑ । प॒श्य॒ । रू॒पाणि॑ । तानि॑ । ब्र॒ह्मा । तु । शु॒न्ध॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशसनं विशसनमथो अधिविकर्तनम् । सूर्याया: पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽशसनम् । विऽशसनम् । अथो इति । अधिऽविकर्तनम् । सूर्यायाः । पश्य । रूपाणि । तानि । ब्रह्मा । तु । शुन्धति ॥ १०.८५.३५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 35
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (1)

    पदार्थ

    (सूर्यायाः) तेजस्वी वधू के (रूपाणि) बाह्यरूपों को (पश्य) जान-समझ (आशसनम्) आशाभाव (विशसनम्) निराश होना (अथ) और (अधिविकर्तनम्) रुष्ट होने पर पीड़ा देना (एतानि) उन बाह्यरूपों को (ब्रह्मा तु) ज्ञानी तो (शुन्धति) शोध देता है-ठीक कर देता है, अन्य व्यभिचारी नहीं ॥३५॥

    भावार्थ

    तेजस्वी नव वधू कदाचित् किसी वस्तु की आशा रखती हो या उनके न प्राप्त होने पर उदास हो-निराश हो या रुष्ट होकर हिंसा करने को उद्यत हो-दुःखी करने को उद्यत हो, ज्ञानी पति इनका यथायोग्य शोधन-समाधान करके उसे अनुकूल बना लेता है, अन्य नहीं ॥३५॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सूर्यायाः-रूपाणि पश्य) तेजस्विन्या नववध्वाः-बाह्यरूपाणि जानीहि (आशसनं विशसनम्-अथ-अधिविकर्तनम्) आशाभावः, निराशाभावः-औदासीन्यम्, रुष्टभावेन पीडनं च (तानि ब्रह्मा तु शुन्धति) यो ब्रह्मज्ञानी विधिना पतिः स तानि शोधयति, नान्यो व्यभिचारी ॥३५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Hope, fear and debasement, frustration, anger and cruelty, and the irony that cuts too deep to the very core, these are various moods and manners of women.$These the wise vision knows and corrects, purifies or excuses with superior understanding.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    तेजस्वी नववधू कदाचित एखाद्या वस्तूची इच्छा करून किंवा ती प्राप्त न झाल्यास उदास, निराश, रुष्ट होऊन हिंसा करण्यास उद्यत होऊ शकते किंवा दु:खी होऊ शकते. ज्ञानी पती ते जाणून यथायोग्य समाधान करून अनुकूल बनवितो, इतर नव्हे. ॥३५॥

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