ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 17
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - देवाः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सू॒र्यायै॑ दे॒वेभ्यो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च । ये भू॒तस्य॒ प्रचे॑तस इ॒दं तेभ्यो॑ऽकरं॒ नम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसू॒र्यायै॑ । दे॒वेभ्यः॑ । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ । ये । भू॒तस्य॑ । प्रऽचे॑तसः । इ॒दम् । तेभ्यः॑ । अ॒क॒र॒म् । नमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च । ये भूतस्य प्रचेतस इदं तेभ्योऽकरं नम: ॥
स्वर रहित पद पाठसूर्यायै । देवेभ्यः । मित्राय । वरुणाय । च । ये । भूतस्य । प्रऽचेतसः । इदम् । तेभ्यः । अकरम् । नमः ॥ १०.८५.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 17
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सूर्यायै) तेजस्विनी वधू के लिये (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (मित्राय) मित्र-सम्बन्धी के लिये (च) और (वरुणाय) वरणीय पुत्र के लिये (भूतस्य ये प्रचेतसः) प्राणी को मात्र जो ज्ञान देनेवाले हैं, (तेभ्यः) उनके लिये (इदं नमः) यह अन्नादि वस्तु मैं गृहपति समर्पित करता हूँ, देता हूँ ॥१७॥
भावार्थ
गृहपति का कर्तव्य है कि वधू के लिए तथा विद्वानों, मित्र, सम्बन्धियों, सन्तानों, ज्ञान देनेवालों के लिए अन्नादि आवश्यक वस्तु को देता रहे ॥१७॥
विषय
आदरणीय जनों के आदर-भाव प्रदर्शन।
भावार्थ
(सूर्यायै) उत्तम वीर्ययुक्त, ब्रह्मचारिणी वधू को (देवेभ्यः) ज्ञान, गुणों आदि की शिक्षा तथा प्रेमपूर्वक द्रव्य आदि देने वाले गुरु जनों और (मित्राय वरुणाय च) उसको स्नेह करने वाले, उसके जीवन के रक्षक और श्रेष्ठ जन (ये च) और जो भी (भूतस्य) समस्त उत्पन्न प्राणियों और चराचर जगत् के (प्रचेतसः) उत्तम रीति से जानने वाले और उत्तम मति, उदार चित्त वाले हैं (तेभ्यः) उनके हितार्थ (नमः अकरम्) मैं नमस्कार, आदर-सत्कार, अन्न तथा आतिथ्य आदि करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
वरपक्षवालों के लिये प्रस्थान काल में 'नमस्कार'
पदार्थ
[१] अब विवाह सम्पन्न हो जाने पर जब सूर्या पतिगृह की ओर जाने के लिये रथ पर आरूढ़ हो जाती है तो विदा देते हुए कन्या पक्षवाले सब व्यक्ति सर्वप्रथम ('सूर्यायै') = सूर्या के लिये (नमः अकरम्) = नमस्कार करते हैं। सूर्या को यही प्रेरणा देते हैं कि तूने इस कुल व उस कुल की लाज रखने के लिये शुभ व्यवहार ही करना है । तेरा व्यवहार ही हमारे मानापमान का कारण बनेगा, सो बड़ा ध्यान करना । नमस्करणीय बने रहना । [२] (देवेभ्यः) = अब बरात के साथ आये देवों के लिये (नमः प्रकरम्) = हम नमस्कार करते हैं । आपने इस सब प्रसंग की शोभा बढ़ाकर हमें कृतकृत्य किया । [३] मित्राय वरुणाय (च) = वर के माता-पिता के लिये, जो कि स्नेह व निद्वेषता की भावना से ओतप्रोत हैं, उनके लिये तो हम नमस्कार करते ही हैं। वे तो हमारे लिये सदा नमस्करणीय होंगे ही। इन नव दम्पती में वे स्नेह व अद्वेष को भरने का ध्यान करेंगे। [४] इनके अतिरिक्त ये (भूतस्य प्रचेतसः) = जो प्राणियों के प्रकृष्ट ध्यान करनेवाले देव हैं (तेभ्यः) = उन सब देवों के लिये (इदं नमः अकरम्) = इस नमस्कार को करते हैं । सब देव इन नव दम्पती का भी रक्षण करें। सब देवों का अनुग्रह इनकी समृद्धि का कारण बने ।
भावार्थ
भावार्थ - कन्या पक्षवाले 'सूर्या' के प्रस्थान के समय सूर्या को नमस्कार करते हुए सबको नमस्कार पूर्वक विदा देते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सूर्यायै) तेजस्विन्यै वध्वै स्वपत्न्यै (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (मित्राय) सख्ये (च) तथा (वरुणाय) वरणीयाय पुत्राय (भूतस्य ये प्रचेतसः) प्राणिमात्रस्य प्रचेतयितारः (तेभ्यः-इदं नमः) तेभ्यो एतदन्नादिकं वस्तु (अकरम्) अहं गृहपतिः करोमि-ददामि ॥१७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This homage I do and offer to Surya, the dawn, the divinities, the loving friend and the wise for the sake of intelligent progeny and to all those who know and enlighten all living beings.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थाचे हे कर्तव्य आहे, की वधूसाठी, विद्वान, मित्र, आप्तेष्ट, संतान, ज्ञानदाता यांच्यासाठी अन्न इत्यादी आवश्यक वस्तू देत राहाव्यात. ॥१७॥
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