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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यदया॑तं शुभस्पती वरे॒यं सू॒र्यामुप॑ । क्वैकं॑ च॒क्रं वा॑मासी॒त्क्व॑ दे॒ष्ट्राय॑ तस्थथुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अया॑तम् । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ । व॒रे॒ऽयम् । सू॒र्याम् । उप॑ । क्व॑ । एक॑म् । च॒क्रम् । वा॒म् । आ॒सी॒त् । क्व॑ । दे॒ष्ट्राय॑ । त॒स्थ॒थुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदयातं शुभस्पती वरेयं सूर्यामुप । क्वैकं चक्रं वामासीत्क्व देष्ट्राय तस्थथुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अयातम् । शुभः । पती इति । वरेऽयम् । सूर्याम् । उप । क्व । एकम् । चक्रम् । वाम् । आसीत् । क्व । देष्ट्राय । तस्थथुः ॥ १०.८५.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सूर्याम्) तेजस्वी कन्या (वरे-यम्) यह वर (शुभस्पती) परस्पर सौभाग्य के पालक (यत्) जब (उप-अयातम्) तुम परस्पर प्राप्त होते हो, तब (वाम्) तुम दोनों का (एकं-चक्रम्-क्व-आसीत्) एक चक्र सङ्कल्प कहाँ स्थित है (देष्ट्राय) तुम परस्पर स्वात्मदान के लिये (क्व तस्थथुः) कहाँ ठहरते हो ॥१५॥

    भावार्थ

    वर वधू का गृहाश्रम के लिये दोनों का मनोभाव या सङ्कल्प किस ओर है, किस विषय में है, तथा परस्पर आत्मदान किस लक्ष्य में है। अर्थात् किसी एक सङ्कल्प या किसी एक लक्ष्य को लेकर विवाह होना चाहिए ॥१५॥

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    विषय

    त्रिचक्र रथ के चक्र विषयक प्रश्न।

    भावार्थ

    हे (शुभः पती) शोभादायक आभूषण वस्त्र आदि और उत्तम गुणों के पालन करने वाले, वा (शुभः पती) उत्तम सत्कार-साधन रूप जल के पालक वा पान करने कराने वाले आप दोनों (यत्) जब (सूर्याम् वरेयम् उप अयातम्) परस्पर वरण कार्य के निमित्त प्राप्त होवें तब (वाम्) आप दोनों का (एकं चक्रम्) एक चक्र (क्व आसीत्) हां हो और (देष्ट्राय) परस्पर दान-आदान करने के लिये वा (देष्ट्राय) उपदेश करने वाले विद्वान् के सत्कारार्थ वा उसका उपदेश ग्रहण करने के लिये (क्व) कहां (तस्थथुः) खड़े होओ ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    सम्बन्ध पक्का करानेवाले 'मूल पुरुष'

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब शुभस्पती सब शुभ कर्मों का रक्षण करनेवाले युवक के माता-पिता (सूर्यां वरेयम्) = सूर्या के वरण के लिये (उप अयातम्) = यहाँ समीप प्राप्त हुए तो (वाम्) = आप दोनों का एक (चक्रम्) = यह पहला चक्र [चक्कर] (क्व) = कहाँ हुआ था ? आप पहले यहाँ आकर कहाँ ठहरे थे । (देष्ट्राय) = सूर्या के विषय में विविध निर्देशों को पाने के लिये (क्व तस्थथुः) - आप किनके यहां ठहरे। [२] यह प्रश्न विवाह में उपस्थित सब देव [सज्जन] वर के माता-पिता से पूछते हैं। उन्हें उत्कण्ठा होती है कि इस सम्बन्ध को करवाने में किन सज्जन का मुख्य स्थान है ! इन्होंने किन से आकर सूर्या के विषय में विविध जानकारी प्राप्त की ? कोई न कोई व्यक्ति इस प्रकार माध्यम बनता ही है। सूर्या के ग्राम का कोई ऐसा व्यक्ति जो वरपक्ष के माता-पिता का भी परिचित होता है, वही इस कार्य को ठीक से सम्पन्न कर पाता है। सब से पूर्व करके माता-पिता आकर इन्हीं के पास ठहरते हैं। इनके आने का उस समय सामान्यतः औरों को पता नहीं लगता । यह पूछताछ का कार्य गुप्तरूप से ही कर लेना ठीक समझा जाता है। इसके बाद में होनेवाले चक्र [चक्कर] तो सब के ज्ञान का विषय बनेंगे ही। जब विवाह के समय वरात में सब देव [सज्जन] आते हैं, तो उनकी यह जानने की इच्छा स्वाभाविक होती है कि 'पहले-पहले आपको किनसे सब बातों की जानकारी हुई' ? बस यही प्रश्न प्रस्तुत मन्त्र का विषय है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - विवाह में उपस्थित होने पर सब देव उन सज्जन के विषय में वर के माता-पिता से पूछते हैं कि 'आप पहले पहल आकर कहाँ ठहरे। किनसे आपको सब बातों का ज्ञान हुआ' ?

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सूर्याम्) सूर्या ‘प्रथमार्थे द्वितीया छान्दसी’ तेजस्विनी कन्या (वरे-यम्) ‘वरोऽयम्, वरः-अयम्’ सन्धिश्छान्दसः’ ओकारस्थाने-एकारः, अयं वरश्चोभौ (शुभस्पती) परस्परं शुभस्य सौभाग्यस्य पालकौ वधूवरौ (यत्-उप-अयातम्) यदा युवां परस्परमुपगच्छथः, तदा (वाम्-एकं-चक्रम्-क्व-आसीत्) युवयोरेकं चक्रं सङ्कल्परूपं मनोमयं कुत्र स्थितमस्ति (देष्ट्राय क्व तस्थथुः) युवां च परस्परं स्वात्मदानाय कुत्र तिष्ठथः ॥१५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Ashvins, protectors and promoters of life’s good, noble men and women of reason and passion, when you come to the bride, darling choice of the groom, where is one of the wheels of your chariot and where abide the two for the purpose of benediction?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाश्रमासाठी वरवधू दोघांचा मनोभाव किंवा संकल्प काय आहे? कोणत्या विषयात आहे? परस्पर आत्मदान कोणत्या प्रयोजनासाठी आहे? अर्थात कोणत्याही एका संकल्पासाठी किंवा लक्ष्यासाठी विवाह झाला पाहिजे. ॥१५॥

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