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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्याविवाहः छन्दः - पादनिचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    चित्ति॑रा उप॒बर्ह॑णं॒ चक्षु॑रा अ॒भ्यञ्ज॑नम् । द्यौर्भूमि॒: कोश॑ आसी॒द्यदया॑त्सू॒र्या पति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चित्तिः॑ । आः॒ । उ॒प॒ऽबर्ह॑णम् । चक्षुः॑ । आः॒ । अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । द्यौः । भूमिः॑ । कोशः॑ । आ॒सी॒त् । यत् । अया॑त् । सू॒र्या । पति॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्तिरा उपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम् । द्यौर्भूमि: कोश आसीद्यदयात्सूर्या पतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्तिः । आः । उपऽबर्हणम् । चक्षुः । आः । अभिऽअञ्जनम् । द्यौः । भूमिः । कोशः । आसीत् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥ १०.८५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सूर्या) सूर्यकान्तिसदृश योग्य नववधू (पतिम्-अयात्) पति-वर को प्राप्त होती है, (उपबर्हणं चित्तिः-आ) शिर का भूषण चेतानेवाली विद्या है (अभ्यञ्जनं चक्षुः-आः) नेत्र को सुन्दर बनानेवाला अञ्जन उसका यथार्थ दिखानेवाला स्नेहदर्शन है (कोशः-द्यौः-भूमिः आसीत्) कोश अर्थात् धनरक्षणस्थान के समान द्यावापृथिवीमय सब जगत् है, माता-पिता हैं ॥७॥

    भावार्थ

    सुयोग्य वधू वही कहलाती है, जिसकी विद्या ज्ञान ही मस्तक का भूषण है और उसका स्नेहदर्शन-स्नेहदृष्टि आँख का अञ्जन है, उसकी सम्पत्ति समस्त प्राणिजगत् या माता-पिता का आश्रय है, ऐसी वधू सुख शान्ति को प्राप्त करती है ॥७॥

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    विषय

    सूर्या वधू के उत्तम अलंकरण।

    भावार्थ

    (यत्) जब (सूर्या) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ नवयुवति वधू (पतिम् अयात्) पालक पति को प्राप्त हो तब (उप बर्हणं) मस्तक को सुख देने वाले तकिये के तुल्य (चित्तिः) ज्ञान वा चित्त का उत्तम संकल्प ही (आः) हो। और (अभिअञ्जनं चक्षुः) आंखों में लगाने का अंजन जिस प्रकार आंख को अधिक शक्ति देता है उसी प्रकार (अभि-अञ्जनम्) सब ओर प्रकाश करने वाला शास्त्र ही (चक्षुः) उसको सत्य तत्त्व बतलाने वाले चक्षु के समान (आः) हो। (द्यौः भूमिः कोशः आसीत्) जिस प्रकार आकाश और भूमि ही अनेक ऐश्वर्यों के खजाने के तुल्य हैं। उसी प्रकार वधू के लिये (द्यौः) पिता और (भूमिः) उत्पादक माता ये दोनों ही (कोशः) उसके धन देने वाले ख़जाने के तुल्य (आसीत्) होते हैं। अथवा—(द्यौः) उसे चाहने वाला उससे रमण वा प्रेम व्यवहार करने वाला सूर्यवत् तेजस्वी पति पुरुष और (भूमिः) उसका आश्रय रूप, वह भूमिवत् सन्तान उत्पादक वह स्वयं (कोशः) गर्भ-गृह के समान रक्षक हो। (अथर्व० १४। १। ६)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    वास्तविक सम्पत्ति

    पदार्थ

    [१] (चित्तिः) = समझदारी ही इसका (उपबर्हणं आ:) = तकिया है। जैसे तकिया सहारा देता है, उसी प्रकार इस कन्या की समझदारी से आनेवाली मुसीबतों में सहारा देती है । (चक्षुः अभ्यञ्जनं आ:) = इसका ठीक दृष्टिकोण ही इसका सुरमा था। सुरमा आँख के सौन्दर्य को बढ़ाने का साधन होता है। इसका ठीक दृष्टि से प्रत्येक वस्तु को देखना ही इसे सुशोभित करता है । [२] (द्यौ भूमिः) = मस्तिष्क व शरीर इसके (कोश:) = कोश (आसीत्) = था । ज्ञानोज्वल मस्तिष्क व दृढ़ शरीर ही इसका वास्तविक धन था। उस समय (यत्) = जब कि (सूर्या) = सविता की पुत्री, उज्ज्वल ज्ञानवाली (सूर्या पतिम्) = अपने पति को अयात् प्राप्त हुई । पतिगृह में जाते हुए यह मस्तिष्क के ज्ञान व शरीर की दृढ़ता रूप सम्पत्ति को ही लेकर गयी।

    भावार्थ

    भावार्थ - कन्या समझदार हो, इसका दृष्टिकोण ठीक हो । मस्तिष्क में ज्ञानरूप सम्पत्ति को तथा शरीर में दृढ़ता को प्राप्त करके ही यह पतिगृह को प्राप्त हो ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सूर्या पतिम्-अयात्) सूर्यकान्तिसदृशी योग्या नववधूः पतिं वरं प्राप्नोति, तदा (उपबर्हणं चित्तिः-आ) शिरोभूषणं चित्तिश्चेतयित्री विद्या “चिती सञ्ज्ञाने” [भ्वादिः] अस्ति-भवति (अभ्यञ्जनं चक्षुः-आ) नेत्रस्याभिव्यक्तीकरणमञ्जनं तस्या यथार्थचक्षणं यथायोग्य-सम्मानस्नेहदर्शनमस्ति (कोशः-द्यौः-भूमिः-आसीत्) कोशो धनरक्षणस्थानमिव द्युलोकः पृथिवीलोकश्च द्यावापृथिवीमयं सर्वं जगदस्ति नह्येकदेशीयकोशोऽपेक्ष्यते सर्वं जगदेव तस्याः कोशः, यद्वा “द्यौर्मे, पिता……माता पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] मातापितरौ स्तः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When Surya, the dawn, the new bride, goes to the house of her groom, then her noble mind and thought is her resting couch, her gracious eye, the collyrium, and the earth and heaven, her treasure.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जिची विद्या व ज्ञान मस्तकाचे भूषण आहे व स्नेहदर्शन-स्नेहदृष्टी नेत्राचे अंजन आहे. तीच सुयोग्य वधू म्हणविली जाते. तिची ही संपत्ती संपूर्ण प्राणिजगत किंवा माता-पिता यांचा आश्रय आहे. अशी वधू सुख-शांती प्राप्त करते. ॥७॥

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