ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 27
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒ह प्रि॒यं प्र॒जया॑ ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन्गृ॒हे गार्ह॑पत्याय जागृहि । ए॒ना पत्या॑ त॒न्वं१॒॑ सं सृ॑ज॒स्वाधा॒ जिव्री॑ वि॒दथ॒मा व॑दाथः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । प्रि॒यम् । प्र॒ऽजया॑ । ते॒ । सम् । ऋ॒ध्य॒ता॒म् । अ॒स्मिन् । गृ॒हे । गार्ह॑ऽपत्याय । जा॒गृ॒हि॒ । ए॒ना । पत्या॑ । त॒न्व॑म् । सम् । सृ॒ज॒स्व॒ । अध॑ । जिव्री॒ इति॑ । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒थः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इह प्रियं प्रजया ते समृध्यतामस्मिन्गृहे गार्हपत्याय जागृहि । एना पत्या तन्वं१ सं सृजस्वाधा जिव्री विदथमा वदाथः ॥
स्वर रहित पद पाठइह । प्रियम् । प्रऽजया । ते । सम् । ऋध्यताम् । अस्मिन् । गृहे । गार्हऽपत्याय । जागृहि । एना । पत्या । तन्वम् । सम् । सृजस्व । अध । जिव्री इति । विदथम् । आ । वदाथः ॥ १०.८५.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 27
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इह ते प्रियम्) हे वधू ! इस पतिगृह में तेरा अभीष्ट (प्रजया समृध्यताम्) सन्तति के साथ समृद्ध हो (अस्मिन् गृहे) इस घर में (गार्हपत्याय, जागृहि) गृहस्थ कर्म के लिये सावधान हो-संयम से गृहस्थकर्म आचरण कर (एना पत्या) इस पति के साथ (तन्वं संसृज) स्वशरीर को सम्पृक्त कर-संयुक्त कर (अध) पुनः (जिव्री) तुम दोनों जीर्ण-वृद्ध हुए भी (विदथम्) परस्पर सहानुभूतिवचन (आवदाथः) भलीभाँति बोलो ॥२७॥
भावार्थ
स्त्री का अभीष्ट पतिगृह में है, जो सन्तान के साथ पूरा होता है, गृहस्थ संयम से करना चाहिए, वरवधू वृद्ध होने पर भी मीठा हितकर बोलें ॥२७॥
विषय
गृहस्थ के कर्त्तव्यों का उपदेश। पति-पत्नी का देह संसर्ग, और वार्धक्य तक परस्पर मिलकर रहने का उपदेश।
भावार्थ
(इह) इस पतिगृह में वा गृहाश्रम में (प्रजया) प्रजा के सहित (ते) तेरा (प्रियम् समृद्ध्यताम्) प्रिय सुख, और ऐश्वर्य आदि बढ़े। /(अस्मिन्) इस गृह में (गार्हपत्याय) गृह के स्वामिभाव के कार्य को भली प्रकार करने के लिये (जागृहि) जाग, सदा सावधान रह। तू (एना पत्या) इस पति से अपना (तन्वं) शरीर (सं सृजस्व) सम्पर्क करा, अन्य किसी परपुरुष से नहीं। अथवा (एना पत्या) इस पति के साथ (तन्वं) प्रजातन्तु को (सं सृजस्व) भली प्रकार उत्पन्न कर। (अध) और तुम दोनों (जिव्री) वृद्धावस्था तक जीर्ण होकर (विदम् आ वदाथः) गृह के जनों के प्रति और परस्पर भी आदर से बोलो अथवा तुम दोनों (विदथम् आवदाथः) ज्ञान का उपदेश करो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
उत्तम सन्तान व गार्हपत्य
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार वशिनी बनने पर (इह) = इस जीवन में (प्रजया) = उत्तम सन्तान के द्वारा (ते) = तेरा (प्रियम्) = आनन्द (समृध्यताम्) = वृद्धि को प्राप्त हो और (अस्मिन् गृहे) = इस घर में (गार्हपत्याय) = घर के रक्षणात्मक कार्य के लिये (जागृहि) = तू सदा जागरित रह । पत्नी की सफलता के दो ही मूल सूत्र हैं - [क] एक तो वह उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाली हो । सन्तान के बिना घर वीरान - सा लगता है और पति-पत्नी के परस्पर प्रेम में भी कमी आ जाती है। [ख] दूसरी बात यह है कि वह सदा सावधान व जागरित हो। घर का किसी प्रकार से नुकसान न होने दे। अपने गार्हपत्य रूप कार्य को पूर्ण सावधानी से करनेवाली हो। तभी घर समृद्ध होता है । [२] इस गृहस्थ में (एना पत्या) = इस पति के साथ (तन्वं सं सृजस्व) = तू अपने शरीर व रूप को एक करके, तू उसकी अर्धाङ्गिनी ही बन जा । तुम दोनों अब दो न रहकर एक हो जाओ। और इस प्रकार परस्पर मेल से सुन्दर गृहस्थ को बिताकर (अधा) = अब (जिव्री) = जरावस्था को प्राप्त करने पर (विदथम्) = ज्ञान को (आवदाथ:) = उच्चारित करनेवाले होवो । अर्थात् तुम्हारा सारा गृहस्थ सुन्दरता से बीते। बड़ी उमर में पहुँचकर तुम ज्ञान का प्रसार करनेवाले बनो। गृहस्थ के साथ ही तुम्हारा जीवन समाप्त न हो जाये।
भावार्थ
भावार्थ - एक युवति गृहपत्नी बनने पर उत्तम सन्तान की प्राप्ति के आनन्द को अनुभव करे और घर के कार्यों में सदा जागरूक रहे ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इह-ते प्रियं प्रजया समृध्यताम्) हे वधु ! अस्मिन् पतिगृहे तवाभीष्टं सन्तत्या सह समृद्धं भवतु (अस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि) अस्मिन् गृहे गृहस्थकर्मणे सावधाना भव-संयमेन गृहस्थकर्माचर (एना पत्या तन्वं संसृज) अनेन पत्या सह स्वशरीरं सम्पृक्तं कुरु (अध) अनन्तरं (जिव्री) युवां जीर्णौ वृद्धावपि सन्तौ “जिव्रयः-जीर्णाः” (निरु० ३।२१) “जीर्यतेः क्रिन् रश्च वः” [उणा० ५।४९] (विदथम्-आवदाथः) परस्परं सहानुभूतिवचनं समन्ताद्वदथः ॥२७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Here in the new home may your new love and happiness increase to new heights with family and children. In this new home keep awake for the good of the children and the family. Here with this husband of yours join in body and mind, and both of you enjoy good fellowship, company and converse till full age and fulfilment in yajnic life.
मराठी (1)
भावार्थ
स्त्रीचे अभीष्ट पतिगृही आहे जे संतानामुळे पूर्ण होते. गृहस्थाश्रम संयमाने पार पाडावा. वर-वधूंनी वृद्ध झाल्यावरही परस्पर मधुर बोलावे. ॥२७॥
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