ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 32
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सूर्या
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
मा वि॑दन्परिप॒न्थिनो॒ य आ॒सीद॑न्ति॒ दम्प॑ती । सु॒गेभि॑र्दु॒र्गमती॑ता॒मप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । वि॒द॒न् । प॒रि॒ऽप॒न्थिनः॑ । ये । आ॒सीत् । अ॒न्ति॒ । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सु॒ऽगेभिः॑ । दुः॒ऽगम् । अति॑ । इ॒ता॒म् । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तयः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा विदन्परिपन्थिनो य आसीदन्ति दम्पती । सुगेभिर्दुर्गमतीतामप द्रान्त्वरातयः ॥
स्वर रहित पद पाठमा । विदन् । परिऽपन्थिनः । ये । आसीत् । अन्ति । दम्पती इति दम्ऽपती । सुऽगेभिः । दुःऽगम् । अति । इताम् । अप । द्रान्तु । अरातयः ॥ १०.८५.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 32
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दम्पती) वधू और वर को, पतिपत्नी को (ये) जो रोग (आसीदन्ति) आक्रमण करते हैं (परिपन्थिनः) चोरों के समान गुप्तरूप में हुए (मा विदन्) न प्राप्त हों (सुगेभिः) सुखप्रद आचरणों के द्वारा (दुर्गम्-अतीताम्) उनका दुःखप्रद कारण दूर हो जाए (अरातयः) न देनेवाले किन्तु रस रक्तादि के लेने-शोषण करनेवाले रोग (अप द्रान्तु) दूर हो जाएँ ॥३२॥
भावार्थ
गृहस्थ में पति-पत्नी को गुप्तरोग घेर लेते हैं, उनके मूलकारण को जान करके सदाचरणों से दूर करना चाहिए, अन्यथा वे शरीर के रस-रक्तादि धातुओं को नष्ट कर डालेंगे ॥३२॥
विषय
दम्पती की रक्षा का उपदेश।
भावार्थ
(ये) जो (दम्पती आ सीदन्ति) पति-पत्नी दोनों को प्राप्त होते हैं (वे परिपन्थिनः) शत्रु रूप होकर (मा विदन्) न प्राप्त हों। (सुगेभिः) सुख साधनों से (दुर्गम् अति इताम्) दुःख से जाने या पार करने योग्य संकट को अतिक्रमण करे, और (अरातयः अप द्रान्तु) शत्रु गण दूर भाग जावें। या जो दुष्ट शत्रु लुटेरे लोग आते हों तो ऐसा उपाय करें कि वे चोर आदि (दम्पती मा विदन्) उन वर वधू को न प्राप्त करें, न जान पावें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
चोर आदि के भय का न होना
पदार्थ
[१] (ये) = जो (परिपन्थिनः) = चोर आदि विरोधी व्यक्ति (दम्पती) = इन पति-पत्नी को (आसीदन्ति) = समीपता से प्राप्त होते हैं वे (मा विदन्) = मत प्राप्त हों। मार्ग में या घर पर चोर आदि का भय न हो। [२] (सुगेभिः) = सुखकर गमनों से (दुर्गम्) = कठिनता से गन्तव्य प्रदेशों को (अतीताम्) = लाँघ जाएँ और (अरातयः) = शत्रु (अपद्रान्तु) = दूर ही रहें, दूर भाग जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ-मार्ग में या घर पर इन पति-पत्नी को शत्रुओं का भय न हो ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दम्पती ये-आसीदन्ति) भार्यापती वधूवरौ प्रति ये-आक्रामन्ति (परिपन्थिनः) पर्यवस्थातारश्चौरा इव रोगाः (मा विदन्) न प्राप्नुयुः (सुगेभिः-दुर्गम्-अतीताम्) सुखप्रदैराचरणैर्दुःखप्रदं कारणं परिगच्छतां (अरातयः-अपद्रान्तु) न दातारोऽपि तु रसरक्तादीनां ग्रहीतारः शोषयितारस्ते रोगा दूरं गच्छन्तु ॥३२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And those which overtake and afflict the wedded couple on their course of life must not come, and may all adversities, wants and malignities disappear and go down to far off depths beyond recurrence.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थाश्रमामध्ये पती-पत्नीला गुप्तरोग घेरतात. त्यांचे मूळ कारण जाणून सदाचरणाने ते दूर केले पाहिजेत; अन्यथा ते शरीरातील रसरक्त इत्यादी धातूंना नष्ट करून टाकतील. ॥३२॥
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