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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 34
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - उरोबृहती स्वरः - मध्यमः

    तृ॒ष्टमे॒तत्कटु॑कमे॒तद॑पा॒ष्ठव॑द्वि॒षव॒न्नैतदत्त॑वे । सू॒र्यां यो ब्र॒ह्मा वि॒द्यात्स इद्वाधू॑यमर्हति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृ॒ष्टम् । ए॒तत् । कटु॑कम् । ए॒तत् । अ॒पा॒ष्ठऽव॑त् । वि॒षऽव॑त् । न । ए॒तत् । अत्त॑वे । सू॒र्याम् । यः । ब्र॒ह्मा । वि॒द्यात् । सः । इत् । वाधू॑ऽयम् । अ॒र्ह॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृष्टमेतत्कटुकमेतदपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे । सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्स इद्वाधूयमर्हति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृष्टम् । एतत् । कटुकम् । एतत् । अपाष्ठऽवत् । विषऽवत् । न । एतत् । अत्तवे । सूर्याम् । यः । ब्रह्मा । विद्यात् । सः । इत् । वाधूऽयम् । अर्हति ॥ १०.८५.३४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 34
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः-ब्रह्मा) जो ब्रह्मज्ञानी (सूर्यां विद्यात्) तेजस्विनी वधू को वेदविधि से विवाही हुई को प्राप्त करता है (सः-इत्) वह ही वोढा पति (वाधूयम्-अर्हति) वधूसम्पर्क को प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं। अन्य के लिये तो (एतत्-तृष्टं कटुकम्) कामवासनावर्धक दाहकर कटुपरिणाम लानेवाले, तथा (अपाष्ठवत्) निस्सार भुस के समान (एतत्-विषवत्) यह विष मिले अन्न की भाँति (न-अत्तवे) खाने भोगने के लिए नहीं है-हानिप्रद है ॥३४॥

    भावार्थ

    ज्ञानी मनुष्य ही विवाह को सफल करता है, वह ही वधूपन-भार्या के सम्बन्ध को प्राप्त करने योग्य है। अज्ञानी कामवश विवाह करनेवाले के लिये वह निस्सार भुस के समान दाहवर्धक विष मिले अन्न जैसा है ॥३४॥

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    विषय

    वधू के अभोग्य देह के दोष, उसका प्रतिविधान।

    भावार्थ

    (एतत् तृष्टम्) यह वधू का देह दाहजनक, विष के समान प्यास लगाने वाला, (एतत् कटुकम्) यह देह कटु, अनभिलषित परिणाम उत्पन्न करने वाला, वह (अपाष्ठवत्) दूर रखने योग्य, (विषवत्) विष के तुल्य घातक भी होता है, तब (एतत् अत्तवे न भवति) वह भोगने योग्य नहीं होता। (यः) जो (ब्रह्मा) वेदज्ञ विद्वान् (सूर्यां विद्यात्) सूर्या, सावित्री, पुत्रादि उत्पन्न करने वाली स्त्री के सम्बन्ध में भली प्रकार ज्ञान रखता है (सः इत्) वह ही (वाधूयम्) वधू के सम्बन्ध में उत्तम समाधान, उसको उपयोगी बनाने का पुरस्कार आदि प्राप्त करने योग्य है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    पत्नी रसवती kitehen को संभाले तृ॒

    पदार्थ

    [१] घर में आने पर वधू का सर्वमहान् कर्त्तव्य घर को सम्हालना है, घर में भी रसोई का प्रबन्ध सुन्दरता से करना है। रसोई के प्रबन्ध पर ही घर के सब व्यक्तियों के स्वास्थ्य का निर्भर है । वह अन्नों के विषय में यह पूरा ध्यान करे कि - [क] (एतत् तृष्टम्) = यह गर्भ होने के कारण अत्यन्त प्यास को पैदा करनेवाला है, [ख] (एतत् कटुकम्) = यह कटु है, काटनेवाला है, [ग] (एतत् अपाष्ठवत्) = यह फोकवाला है, [घ] (विषवत्) = यह विषैले प्रभाव को पैदा करनेवाला है, सो (एतत् न अत्तवे) = यह खाने के लिये ठीक नहीं है। इस प्रकार यह वधू भोजन का पूरा ध्यान करे । [२] पति को भी चाहिए कि कुछ विशाल हृदयवाला हो, पत्नी की मनोवृत्ति को पूरी तरह समझे। समझकर इस प्रकार से वर्ते कि पत्नी का जी दुःखी न हो। इस सूर्याम् ज्ञानदीप्त क्रियाशील वधू को (यः) = जो (ब्रह्मा) = बड़े हृदयवाला ज्ञानी पुरुष (विद्यात्) = ठीक प्रकार से समझे (सः इत्) = वह ही (वाधूयं अर्हति) = इस वधू प्राप्ति के कर्म के योग्य है । नासमझ पति-पत्नी को कभी प्रसन्न नहीं रख सकता ।

    भावार्थ

    भावार्थ-वधू पाक-स्थान की अध्यक्षता करती हुई न खाने योग्य अन्नों को घर से दूर रखे। पति भी पत्नी को समझता हुआ अपने व्यवहार से उसे सदा प्रसन्न रखे ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः ब्रह्मा सूर्यां विद्यात्) यो ब्रह्मज्ञानी तेजस्विनीं वधूं वेदविधिना विवाहितां जानाति-प्राप्नोति (सः इत्-वाधूयम्-अर्हति) स एव वोढा पतिर्वधूसम्पर्कं प्राप्तुमर्हति नान्यः, अन्यार्थे तु पापकृत्यं तत्खलु (एतत्-तृष्टं कटुकम्) कामवासनावर्धकं दाहकरं कटुपरिणामकरं (अपाष्ठवत्-एतद्विषवत्-न-अत्तवे) निःसारवत्-बुसवत् तथैतद्विषवद् विषसम्पृक्तान्नमिव भोक्तुं हानिप्रदमस्ति ॥३४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Matrimony? It is roughshod, it is thorny bitter, all barbs, all poison, it is dangerous to flirt with it. Only the wise youth of divine vision who knows and realises the light and sanctity of Surya, he deserves the prize he may carry away.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानी माणूसच विवाह सफल करतो. तोच भार्या प्राप्त करण्यायोग्य असतो. अज्ञानी कामी विवाह करणाऱ्यासाठी तो निस्सार भुशाप्रमाणे दाहवर्धक, विष मिसळलेल्या अन्नाप्रमाणे असतो. ॥३४॥

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