ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 18
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - सोमार्कौ
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
पू॒र्वा॒प॒रं च॑रतो मा॒ययै॒तौ शिशू॒ क्रीळ॑न्तौ॒ परि॑ यातो अध्व॒रम् । विश्वा॑न्य॒न्यो भुव॑नाभि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायते॒ पुन॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒तः॒ । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीळ॑न्तौ । परि॑ । या॒तः॒ । अ॒ध्व॒रम् । विश्वा॑नि । अ॒न्यः । भुव॑ना । अ॒भि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्यः । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒ते॒ । पुन॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीळन्तौ परि यातो अध्वरम् । विश्वान्यन्यो भुवनाभिचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायते पुन: ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वऽअपरम् । चरतः । मायया । एतौ । शिशू इति । क्रीळन्तौ । परि । यातः । अध्वरम् । विश्वानि । अन्यः । भुवना । अभिऽचष्टे । ऋतून् । अन्यः । विऽदधत् । जायते । पुनरिति ॥ १०.८५.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 18
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एतौ) ये दोनों वर वधू (मायया) बुद्धि से-स्नेहबुद्धि से (पूर्वापरं चरतः) आगे-पीछे के क्रम से गृहस्थ में विचरण करते हैं (शिशू क्रीडन्तौ) प्रशंसनीय अथवा दो बालकों के समान क्रीड़ा करते हुए (अध्वरं परि यातः) गृहस्थयज्ञ को परिप्राप्त होते हैं (अन्यः) उनमें से वर (विश्वानि भुवना) सब आवश्यक वस्तुओं-कर्मों को (अभिचष्टे) दृष्टिपथ लाता है, एकत्र करता है (अन्यः) वधू (ऋतून् विदधत्) ऋतुधर्मों का सेवन करती हुई (पुनः-जायते) पुनः-पुनः सन्तान उत्पन्न करती है ॥१८॥
भावार्थ
वर-वधू गृहस्थजीवन में परस्पर स्नेह से बढ़ते हैं। एक-दूसरे के सहारे गृहस्थ आश्रम को श्रेष्ठ बनाएँ, वर या पति गृहस्थ की आवश्यक वस्तुओं तथा कार्यों पर दृष्टिपात कर उन्हें जुटावे, वधू या पत्नी ऋतु के अनुसार सन्तानों के उत्पादन-रक्षण आदि पर ध्यान दे ॥१८॥
विषय
सूर्य चन्द्र वा दिन रात्रि का दो बालकों के तुल्य तथा उनके समान स्त्री-पुरुषों का वर्णन। विवाह के समय की परिक्रमाओं के तात्पर्य का स्पष्टीकरण।
भावार्थ
सूर्य चन्द्र वा दिन रात्रि का दो बालकों के समान वर्णन। और उनके समान स्त्री पुरुषों का वर्णन। (एतौ) ये दोनों (क्रीडन्तौ शिशू) खेलने वाले दो बालकों वा गोद में सोने वाले दो बच्चों के समान (मायया) प्रभु की निर्माण व्यवस्था के अनुसार (पूर्व-अपरम् चरतः) पहले और पीछे चलते, (अध्वरम् परि यातः) कभी न नष्ट होने वाले चक्र वा व्यवस्थित क्रम या मार्ग को परिक्रमण करते हैं। (अन्यः) इन दोनों में से एक सूर्य (विश्वानि भुवनानि) समस्त लोकों और प्राणियों को (अभिचष्टे) देखता है, प्रकाशित करता है और (अन्यः) दूसरा चन्द्र (ऋतून्) ऋतुओं, दो मास रूप काल के विभागों को बनाता हुआ, (पुनः जायते) बार २ उत्पन्न होता अर्थात् बार २ लुप्त होता और पुनः २ प्रकट होता है। (२) इसी प्रकार स्त्री पुरुष जो परस्पर विवाहित होगये हैं। वे दोनों (शिशु) एक दूसरे के प्रति बालकों के समान स्वच्छ, निष्कपट व्यवहार वाले होकर और (शिशु) एक दूसरे के प्रति उत्तम २ वचनों को बोलते हुए (क्रीडन्तौ) विहार-विनोद करते हुए, (मायया) अपनी बुद्धि के अनुसार वा (मायया) गृहस्थ एवं सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति सहित व धनोपार्जन, नाना सुख सामग्री द्वारा (पूर्व-अपरं चरतः) एक दूसरे के पूर्व और अपर, आगे पीछे विचरते हुए (अध्वरं परि यातः) एक अविनाशी गृहस्थरूप यज्ञ वा अविनाशी प्रभु के प्रति इसी प्रकार परिगमन करें जिस प्रकार वे विवाह काल में अग्नि-यज्ञ में अग्नि के चारों ओर परिक्रमण करते हैं। विवाह काल में जैसे वे अग्नि की परिक्रमा करते हुए अग्नि को सदा दक्षिण हस्त रखते हैं, उसी के प्रकाश में कभी वधू आगे वर पीछे कभी वर आगे वधू पीछे इस प्रकार परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार इस लोक-यात्रा में भी वे वरवधू कार्य, समय, शक्ति अनुसार एक दूसरे के आगे-पीछे चलते हुए सदा विद्वान्, ज्ञानी, पथदर्शक सर्वत्र व्यापक प्रभु परमेश्वर को अपने मान्य साक्षीपद पर रखते हुए आगे बढ़ें। उन दोनों में से (अन्यः) एक (विश्वानि भुवना अभि चष्टे) समस्त भुवनों, कार्यों को देखे। और (अन्यः) दूसरा साथी स्त्री (ऋतून् विद-धत्) ऋतु-कालों को प्रकट करती हुई (पुनः) पुनः २ (जायते) सन्तान उत्पन्न करती है। (३) यह मन्त्र आत्मा परमात्मा का भी वर्णन करता है। वे दोनों (मायया) माया अर्थात् जगत् को निर्माण करने वाली प्रकृति के साथ (पूर्वापरं परि चरतः) आगे पीछे विद्यमान रहते हैं। प्रभु जगत् के पूर्व भी उस पर अधिकारवान् था, बाद भी, जीवात्मा पहले कल्पों में भी उसका भोक्ता था और अब भी भोगता है। वे दोनों अध्वर अर्थात् अविनाशी कालचक्र पर गति करते हैं। प्रभु काल-धर्म से सृष्टि बनाता बिगाड़ता है, और जीव उसका तदनुसार भोग करता है। प्रभु (विश्वानि भुवनानि) सब प्राणियों के कर्मों और समस्त लोकों का साक्षी, द्रष्टा है और वह जीव (ऋतून् विदधत्) ऋतुओं, प्राणों को पुनः २ बनाता वा देह में प्रकट कर, धारण करता हुआ (पुनः जायते) बार २ उत्पन्न होता है अर्थात् बार २ देह धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
नव दम्पती का कार्य विभाग
पदार्थ
[१] घर में पहुँचकर (एतौ) = ये दोनों (शिशू) = अपनी बुद्धि को स्वाध्याय के द्वारा तीव्र बनानेवाले युवक और युवति (मायया) = अपने प्रज्ञान के द्वारा (पूर्वापरं चरतः) = [पूर्वस्मात् उत्तरं समुद्रं] ब्रह्मचर्य से गृहस्थ में प्रवेश करते हैं । अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम में ज्ञान का सम्पादन करके अब ये गृहस्थ में प्रवेश करते हैं। ब्रह्मचर्याश्रम प्रथम समुद्र था । उसे तैरकर ये द्वितीय समुद्र में आते हैं । [२] इस (अध्वरम्) = गृहस्थयज्ञ में ये (क्रीडन्तौ) = क्रीड़क की मनोवृत्ति बनाकर (परिभातः) = सब गतियाँ करते हैं । क्रीड़क की मनोवृत्ति के होने पर कष्ट नहीं होते । कष्टों को ये हँसते हुए सहन कर लेते हैं । इस वृत्ति के अभाव में मुसीबत ही मुसीबत लगने लगती है। गृहस्थ को 'अध्वर' इसलिए कहा है कि इसमें यथासंभव अहिंसा व पवित्रता को बनाये रखना है । [३] इन पति-पत्नी में (अन्यः) = एक पति तो (विश्वानि भुवना) = घर में रहनेवाले सब प्राणियों का (अभिचष्टे) = ध्यान करता है [ looks after ]। पति का कार्य रक्षण है। घर में सबकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने का कर्त्तव्य पति का होता है । [४] (अन्य:) = गृह नाटक का दूसरा मुख्य पात्र पत्नी (ऋतून् विदधत्) = ऋतुओं को [a period fouonrable for conception] गर्भाधान के लिये उचित समयों को धारण करती हुई (पुनः जायते) = फिर पुत्र के रूप में जन्म लेती है । पत्नी का कार्य उत्कृष्ट सन्तान को जन्म देना है। पति ने उस सन्तान के रक्षण की पूर्ण व्यवस्था करनी है ।
भावार्थ
भावार्थ- समझदार पति-पत्नी क्रीड़क की मनोवृत्ति से गृहस्थ को सुन्दरता से निभाते हैं । पत्नी उत्तम सन्तान को जन्म देती है तो पति उसके रक्षण का उत्तरदायित्व लेता है।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एतौ मायया पूर्वापरं चरतः) एतौ वरवध्वौ प्रज्ञया परस्परं पूर्वापरक्रमेण वर्तमानौ विचरतः (शिशू क्रीडन्तौ-अध्वरं परि यातः) प्रशंसनीयौ यद्वा शिशू इव क्रीडन्तौ गृहस्थयज्ञं परिप्राप्नुतः (अन्यः) एको वरः (विश्वानि भुवना-अभिचष्टे) सर्वाणि खल्वावश्यकवस्तूनि कार्याणि चाभिपश्यति पुनस्तानि सङ्गृह्णाति (अन्यः) वधूरित्यर्थः (ऋतून् विदधत्) ऋतुधर्मान् सेवमाना (पुनः-जायते) पुनः पुनः पुत्रं जनयति ॥१८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
These two, sun and moon, move on in sequential order by their own power and virtue, playing happily like innocent children and go on participating and contributing to the divine yajna of the cosmos. Of these, one watches and enlightens all regions of the world and the other rises again and again according to the season and thereby setting the seasons in order.
मराठी (1)
भावार्थ
वर-वधू हे गृहस्थाश्रमात परस्पर स्नेहाने वाढतात. एकमेकांच्या आश्रयाने गृहस्थाश्रमाला श्रेष्ठ बनवावे. पतीने गृहस्थाश्रमाच्या आवश्यक वस्तू संग्रहित कराव्यात. पत्नीने ऋतूप्रमाणे संतानांना उत्पन्न करून त्यांचे पालन-रक्षण इत्यादींवर लक्ष द्यावे. ॥१८॥
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