ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 5
यत्त्वा॑ देव प्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुन॑: । वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒ आकृ॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । दे॒व॒ । प्र॒ऽपिब॑न्ति । ततः॑ । आ । प्या॒य॒से॒ । पुन॒रिति॑ । वा॒युः । सोम॑स्य । र॒क्षि॒ता । समा॑नाम् । मासः॑ । आऽकृ॑तिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा देव प्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुन: । वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मास आकृतिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । देव । प्रऽपिबन्ति । ततः । आ । प्यायसे । पुनरिति । वायुः । सोमस्य । रक्षिता । समानाम् । मासः । आऽकृतिः ॥ १०.८५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देव) हे सोम चन्द्रमा ! (यत् त्वा) जो तूझे (प्रपिबन्ति) सूर्यकिरणें कृष्णपक्ष में कला द्वारा अपने अन्दर विलोप या विलीन करती हैं (ततः-पुनः-आप्यायसे) फिर तू शुक्लपक्ष में अपनी कलाओं से बढ़ता है, पूर्ण हो जाता है, कारण कि (वायुः सोमस्य रक्षिता) प्रवहनामक वायु जिसके आश्रय पर चन्द्रमा आकाश में ठहरता है, परिधिरूप में आकाश में घूमता है, वह वायु रक्षक है (समानां-मासः-आकृतिः) वसन्तादि ऋतुओं के मास का प्रकट करनेवाला है ॥५॥
भावार्थ
जैसे-जैसे चन्द्रमा पूर्व दिशा में सूर्य की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे सूर्यकिरणों से कृष्णपक्ष में विलीन होने लगता है और शुक्लपक्ष में जैसे अलग होता है, फिर बढ़ता चला जाता है, पूर्ण हो जाता है, इस प्रकार ऋतुओं और महीनों का निर्माण करता है ॥५॥
विषय
चन्द्रवत् सोम विद्वान् का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार चन्द्रमा (पुनः आप्यायते) फिर २ वृद्धि को प्राप्त होता है और (वायुः सोमस्य रक्षिता) वायु अर्थात् चन्द्र को चलाने वाली गति ही सोम का रक्षक है, वह (समानां) वर्षों के (मासः) मास का (आकृतिः) बनाने वा बतलाने वाला होता है। उसी प्रकार हे (देव) विद्या आदि सद्गुणों की कामना करने वाले विद्वन् ! (त्वा) तुझे (यत्) जब (प्र-पिबन्ति) गुरु आदि जन खूब अच्छी प्रकार सुरक्षित करते हैं, (ततः) तब तू (आप्यायसे) बल आदि से हृष्ट-पुष्ट हो जाता है। ऐसे (सोमस्य) सोम्य स्वभाव के, विद्याभिलाषी शिष्य का रक्षक (वायुः) ज्ञानवान् गुरु, आचार्य होता है। (मासः) ज्ञानवान् पुरुष ही (समानां) ज्ञान सहित विद्वानों का (आकृतिः) बनाने वाला होता है। इति विंशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
आप्यायन व दीर्घ जीवन
पदार्थ
[१] (देव) = दिव्य प्रकाश को प्राप्त करानेवाले सोम ! (यत्) = जब (त्वा) = तुझे (प्रपिबन्ति) = अपने अन्दर ही प्रकर्षेण पीते हैं, शरीर के अन्दर ही व्याप्त करने का प्रयत्न करते हैं, (ततः) = तब (पुनः) = फिर से (अप्यायसे) = तू सब अंग-प्रत्यंगों की शक्ति का आप्यायन करता है । सोम के रक्षण से सब इन्द्रियाँ सबल बनती हैं। यह सोम मन को भी दिव्य वृत्तिवाला बनाता है । सोम का रक्षण करनेवाले पुरुष का मन शुभ भावनाओं से भरा हुआ होता है। इसका मस्तिष्क भी ज्ञानदीप्त बनता है । [२] इस शरीर में (सोमस्य रक्षिता) = सोम का रक्षण करनेवाला (वायुः) = वायु है। वायु शरीर में प्राण के रूप में रहता है। इन प्राणों की साधना ही शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति का कारण बनती है। इस ऊर्ध्वगति से (मासः) = [मस्यते परिमीयते सोमः सा० ] शरीर की आकृति को परिवर्तित कर देनेवाला, क्षीण अंगों को फिर से आप्यायित कर देनेवाला, यह सोम (समानाम्) = वर्षों का (अकृतिः) = अकर्ता बनानेवाला होता है, अर्थात् सोमरक्षण से दीर्घ आयुष्य प्राप्त होता है अथवा यह सोम (समानाम्) = समताओं का (आकृति:) = बनानेवाला है, अर्थात् सोम यथासम्भव हमारी मानस क्षमता को नष्ट नहीं होने देता। मानस सन्तुलन को वे ही व्यक्ति खो बैठते हैं जो सोम को अपव्यय से सुरक्षित नहीं करते ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना द्वारा सोम की ऊर्ध्वगति होती है। यह रक्षित सोम अंगों का आप्यायन करनेवाला तथा दीर्घजीवन को प्राप्त करानेवाला होता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देव) हे सोम चन्द्रमाः ! (यत् त्वा) यदा त्वां (प्रपिबन्ति) कलाशः-आदित्यरश्मयोऽपरपक्षे कृष्णपक्षे प्रकृष्टं पिबन्ति स्वस्मिन् विलोपयन्ति विलीनं कुर्वन्ति (ततः पुनः-आप्यायसे) ततः पुनः पूर्वपक्षे त्वं स्वकलाशः-आप्यायमानो भवसि वर्धसे पूर्णो भवसि यतः (वायुः सोमस्य रक्षिता) प्रवहनामको वायुर्यस्याश्रये चन्द्रमा आकाशे तिष्ठति आकाशे परिधिरूपे भ्रमति सः रक्षकोऽस्ति (समानां मासः-आकृतिः) संवत्सराणामिति बहुवचनेन ऋतूनां ग्रहणम्, वसन्तादीनां मासः-मासस्य “पद्दन्नोमास” [अष्टा० ६।१।६३] “मासस्य मास्” आकारकः व्यञ्जको भवति ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine Soma, when the sun rays drink you as the moon in the first, dark half of the month, then you come up to full growth as the moon in the second, bright half of the month. The wind, cosmic energy, is the protector of soma in its place. Thus the month is the constituent of years and presents the full form of the two equal fortnights of the moon.$Note: Mantras from 6 to 16 are a metaphor which can be interpreted as wedding of the dawn in the context of nature and the Veda, and as wedding of a maiden and relevance of the Veda in the human context. The maiden and the dawn are synonymous.
मराठी (1)
भावार्थ
जसा-जसा चंद्रमा पूर्व दिशेला सूर्याकडे जातो तसा तसा सूर्यकिरणाद्वारे कृष्ण पक्षात विलीन होऊ लागतो व शुक्ल पक्षात जसा वेगळा होतो तसा तसा पुन्हा वाढत जातो, पूर्ण होतो. या प्रकारे तो ऋतू व महिन्यांची व निर्मिती करतो. ॥५॥
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