ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 20
ऋषिः - सूर्या सावित्री
देवता - नृर्णा विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सु॒किं॒शु॒कं श॑ल्म॒लिं वि॒श्वरू॑पं॒ हिर॑ण्यवर्णं सु॒वृतं॑ सुच॒क्रम् । आ रो॑ह सूर्ये अ॒मृत॑स्य लो॒कं स्यो॒नं पत्ये॑ वह॒तुं कृ॑णुष्व ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽकिं॒शु॒कम् । श॒ल्म॒लिम् । वि॒श्वऽरू॑पम् । हिर॑ण्यऽवर्णम् । सु॒ऽवृत॑म् । सु॒ऽच॒क्रम् । आ । रो॒ह॒ । सू॒र्ये॒ । अ॒मृत॑स्य । लो॒कम् । स्यो॒नम् । पत्ये॑ । व॒ह॒तुम् । कृ॑णुष्व ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकिंशुकं शल्मलिं विश्वरूपं हिरण्यवर्णं सुवृतं सुचक्रम् । आ रोह सूर्ये अमृतस्य लोकं स्योनं पत्ये वहतुं कृणुष्व ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽकिंशुकम् । शल्मलिम् । विश्वऽरूपम् । हिरण्यऽवर्णम् । सुऽवृतम् । सुऽचक्रम् । आ । रोह । सूर्ये । अमृतस्य । लोकम् । स्योनम् । पत्ये । वहतुम् । कृणुष्व ॥ १०.८५.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 20
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सूर्ये) हे तेजस्विनी वधू ! तू (सुकिंशुकं शल्मलिम्) अच्छे प्रकाशक-सुदीप्त मलरहित पवित्र अथवा सुपुष्पित पलाश के समान शोभन शाखावाले शाल्मलि वृक्ष की भाँति (विश्वरूपम्) सारे रूपोंवाले (हिरण्यवर्णम्) सुनहरे रंगवाले (सुवृतं सुचक्रम्) शोभन व्यवहारवाले, अच्छे गमन आगमनवाले, शोभन चक्रवाले गृहस्थरथ (अमृतस्य लोकम्) अमृत के स्थान के समान (स्योनम्) सुखरूप (वहतुम्) विवाहरूप गृहस्थाश्रम को (पत्ये कृणुष्व) पतिप्राप्ति के लिए बना ॥२०॥
भावार्थ
गृहस्थाश्रम को प्रकाशमय, पुष्पित पलाश और शाल्मलि के समान सुन्दर पवित्र अमृत के स्थान जैसा सुखमय बनाना गृहिणी का कार्य है। वह ही इसे स्वर्ग बना सकती है ॥२०॥
विषय
उषा सूर्यवत् नव वधू को विवाह की आज्ञा और उपदेश। गृहस्थ का वर्णन। मन्त्र की पति-पत्नी दोनों के प्रति योजना।
भावार्थ
हे (सूर्ये) उत्तम वीर्य और उत्तम वचन वाली, उत्तम कान्तियुक्त, प्रभात वेला के समान उत्तम दीप्ति वाली वधू ! तू (सु-किं शुकम्) उत्तम दीप्तियुक्त, उत्तम पलाश के वृक्ष से बने वा उत्तम पलाश के पुष्प के समान सुन्दर सजे और (शल्मलिं) मलरहित, पाप आदि वासनाओं से शून्य, निर्दोष, वा शल्मलि [सेमर] वृक्ष के बने (विश्व-रूपम्) नाना प्रकार के वा (हिरण्य-वर्णं) हित-रमणीय वर्ण के, वा सुवर्ण की कान्ति वाले, (सु-वृतम्) सुख से चलने वाले, उत्तम व्यवहारवान्, (सु-चक्रम्) उत्तम चक्रों से युक्त, शुभ अंगों वाले, रथ के समान गृहस्थ पर (आरोह) चढ़, उसमें विराज। और (पत्ये वहतुं) पति के साथ विवाह (कृणुष्व) कर और विवाह सम्बन्ध को (अमृतस्य) न नाश होने वाले पुत्र पौत्रादि से युक्त (स्योनं लोकम्) जल के समान शान्तिदायक सुखप्रद लोक (कृणुष्व) बना। (२) पक्षान्तर में उषा सूर्या का रथ स्वयं सूर्य मण्डल का वह प्रभावितान है जो सूर्योदय के पूर्व प्रकट होता है वह भी (सु-किंशुकं) उत्तम खिले शोभायुक्त पलाश वृक्ष के समान अति प्रकाशयुक्त वा (शल्मलिम्) शाल्मलि [ सेमर ] के पीले-लाल फूल से खिले वृक्ष के तुल्य सुन्दर, वा (शल्मलिम्) मल के आवरण, अन्धकार से रहित, (विश्व-रूपम्) विविध प्रकाशमय रूप, कान्ति से युक्त, उज्ज्वल, (हिरण्य-वर्णं) हित रमणीय वर्ण वाले, (सु-वृतम्) शोभा से आवृत, (सु-चक्रम्) उत्तम कान्ति से युक्त होता है। वह अपने (पत्ये) पालक सूर्य के (वहतुं) प्राप्त होने योग्य लोक को (स्योनं) सुखकारक और (अमृतस्य लोकं) प्रातःकालिक ओस रूप जल से युक्त कर देती है। (३)गृहस्थ का रथ स्वतः पति को प्राप्त करने रूप है। अतः पति ही की ओर ये सब विशेषण हैं। पति के लिये स्त्री और स्त्री के लिये पति ही गृहस्थ रूप रथ हैं। इसलिये ये विशेषण पति के गुण बतलाते हैं। पति (सु-किंशुक्रम्) उत्तम प्रकाश युक्त, तेजस्वी और ज्ञान-दीप्ति से भी युक्त हो। (शल्मलिम्) ज्ञान और उपदेशों से उसका मल नष्ट हो, अविद्या-अज्ञान और दुराचार से रहित एवं स्नान अभ्यंगादि से स्वच्छ हो। (विश्व-रूपम्) सब को रुचिकर, पत्नी के लिये तो वह विश्व, समस्त जगत् के समान सर्वस्व हो, वह (हिरण्य-वर्णम्) सुवर्ण के तुल्य सुन्दर और हितकारी हो, वही उसका परम धन हो, वह (सु-वृतम्) उत्तम आचारवान् सुख से विधि पूर्वक उत्तम रीति से वरण किया हो, वह (सु-चक्रम्) शुभ कान्तिमान् उत्तम अंगों वाला, अन्धा काणा पंगु आदि दोषों से रहित हो, उसको कन्या, (आरोह) प्राप्त हो, उसका आश्रय लेकर जगत् के जीवन मार्ग में मन करे। वह (वहतुं) अपने जीवन के रथ को (अमृतस्य) अमृत, अर्थात् पुत्र का (लोकं स्योनं कृणुष्व) सुखकारी स्थान बनावे। अर्थात् इसी के आश्रय वह उत्तम सन्तान को उत्पन्न करे। वा अमृत, जल अन्नादि से पूर्ण गृह को सुखदायक बनावे। यह लोक पति का लोक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥
विषय
पत्नी
पदार्थ
[१] पत्नी इस गृहस्थरूप रथ में आरूढ़ हो । 'इस रथ को वह कैसा बनाये' इसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे (सूर्ये) = सविता की पुत्रि ! तू (आरोह) = इस गृहस्थ-रथ में आरूढ़ हो । जो रथ (सुकिंशुकम्) = उत्तम प्रकाशवाला है। अर्थात् पत्नी ने भी स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान के प्रकाश को उत्तरोत्तर बढ़ाना है। (शल्मलिम्) = [शल्- to agitate] जिस रथ से कम्पित करके मल को अलग कर दिया गया है। ज्ञान से राग-द्वेषरूप मल दूर होते ही हैं। (विश्वरूपम्) = उस सर्वत्र प्रविष्ट प्रभु का जो विरूपण करनेवाला है । अर्थात् सदा प्रभु के ध्यान की वृत्तिवाला पत्नी ने होना है। (हिरण्यवर्णम्) = देदीप्यमान वर्णवाला हो । स्वास्थ्य के कारण यह चमकता हो। (सुवृतम्) = उत्तम वर्जनवाला है। पत्नी ने सदा कर्मों को उत्तम ढंग से करना है। (सुचक्रम्) = यह गृहस्थ रथ उत्तम चक्रवाला है। पत्नी ने इस गृहस्थ में सदा उत्तम कर्मों को करना है। [२] इस प्रकार के गृहस्थ रथ पर आरोहण करती हुई पत्नी से कहते हैं कि तू इस (वहतुम्) = गृहस्थ रथ को (पत्ये) = पति के लिये (अमृतस्य लोकम्) = नीरोगता का स्थान व (स्योनम्) = सुखकर (कृणुष्व) = बना । पत्नी के व्यवहार पर ही इस बात का निर्भर करता है कि घर में नीरोगता व सुख बना रहे। अधिक भोग-प्रवणता का न होना मौलिक बात है और उसके साथ भोजनाच्छादन की व्यवस्था के ठीक होने पर सुख ही सुख बना रहता है।
भावार्थ
भावार्थ- पत्नी घर को अमृतता व कल्याण का स्थान बनाये। इसके लिये वह ज्ञान-प्रवण-वासनाओं को दूर फेंकनेवाली, प्रभु स्मरण की वृत्तिवाली स्वस्थ सद्व्यवहारवाली व उत्तम कर्मों में लगी हुई हो ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सूर्ये) हे तेजस्विनि वधु ! त्वं (सुकिंशुकं शल्मलिम्) सुकाशकं सुदीप्तं शन्नमलं नष्टमलं यद्वोपमायां सुपुष्पितं पलाशमिव तथा शोभनशरं शोभनशाखादण्डकं शाल्मलिवृक्षमिव (विश्वरूपम्) सर्वरूपवन्तं (हिरण्यवर्णम्) सुवर्णवर्णकं (सुवृतं सुचक्रम्) शोभनवर्तनम्-शोभनगमनागमनवन्तं शोभनचक्रवन्तं गृहस्थरथम् (अमृतस्य लोकम्) अमृतस्य स्थानमिव (स्योनम्) सुखरूपं (वहतुम्) विवाहं गृहस्थाश्रमं (पत्ये कृणुष्व) पत्ये-वराय कुरु-सम्पादय ॥२०॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Welcome, O bride, bright dawn of a new morning, ride and rule the golden, well structured, well geared chariot of a homely world, beautiful and glowing like a shalmali garden in bloom and turn it into paradisal bliss of immortal joy for the husband and the family.
मराठी (1)
भावार्थ
गृहस्थाश्रमाला प्रकाशमय पुष्पित पलाश व शाल्मली प्रमाणे सुंदर पवित्र अमृतासारख्या स्थानाप्रमाणे सुखमय बनविणे गृहिणीचे कार्य आहे. तीच याला स्वर्ग बनवू शकते. ॥२०॥
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