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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 85 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 42
    ऋषिः - सूर्या सावित्री देवता - सूर्या छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    इ॒हैव स्तं॒ मा वि यौ॑ष्टं॒ विश्व॒मायु॒र्व्य॑श्नुतम् । क्रीळ॑न्तौ पु॒त्रैर्नप्तृ॑भि॒र्मोद॑मानौ॒ स्वे गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । ए॒व । स्त॒म् । मा । वि । यौ॒ष्ट॒म् । विश्व॑म् । आयुः॑ । वि । अ॒श्नु॒त॒म् । क्रीळ॑न्तौ । पु॒त्रैः । नप्तृ॑ऽभिः । मोद॑मानौ । स्वे । गृ॒हे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् । क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । एव । स्तम् । मा । वि । यौष्टम् । विश्वम् । आयुः । वि । अश्नुतम् । क्रीळन्तौ । पुत्रैः । नप्तृऽभिः । मोदमानौ । स्वे । गृहे ॥ १०.८५.४२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 42
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इह-एव स्तम्) हे वधू और वर ! तुम दोनों इस गृहाश्रम में स्थिर रहो (मा वियौष्टम्) मत वियुक्त होओ (विश्वम्-आयुः) समग्र आयु को प्राप्त करो-भोगो (पुत्रैः-नप्तृभिः क्रीडन्तौ) पुत्र-पुत्रियों पौत्र-दौहित्रों के साथ खेलते हुए (स्वे गृहे मोदमानौ) अपने घर में हर्ष करते हुए रहो ॥४२॥

    भावार्थ

    गृहस्थ को परस्पर गृहस्थ का पालन करते हुए परस्पर मेल से रहते हुए पुत्र-पौत्रादि आदि के साथ आनन्द करते हुए अपने घर में रहना चहिये ॥४२॥

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    विषय

    वर वधू को आयु भर एकत्र रह कर पुत्र पौत्रादि सहित सुखी जीवन बिताने का उपदेश।

    भावार्थ

    हे वरवधू जनो ! तुम दोनों (इह एव स्तम्) यहां ही रहो। (मा वि यौष्टम्) कभी वियुक्त मत होओ। (विश्वम् आयुः) समस्त आयु को (वि अश्नुतम्) विशेष रूप से प्राप्त करो। और (गृहे) गृह में (पुत्रैः नप्तृभिः) पुत्रों और नातियों के साथ (मोदमानौ) खूब प्रसन्न और हर्षित होते हुए और (क्रीडन्तौ) उनके साथ खेलते और आनन्द-विनोद करते हुए (स्तं) रहो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सूर्या सावित्री। देवता-१–५ सोमः। ६-१६ सूर्याविवाहः। १७ देवाः। १८ सोमार्कौ। १९ चन्द्रमाः। २०-२८ नृणां विवाहमन्त्रा आशीः प्रायाः। २९, ३० वधूवासः संस्पर्शनिन्दा। ३१ यक्ष्मनाशिनी दम्पत्योः। ३२–४७ सूर्या॥ छन्द:- १, ३, ८, ११, २५, २८, ३२, ३३, ३८, ४१, ४५ निचृदनुष्टुप्। २, ४, ५, ९, ३०, ३१, ३५, ३९, ४६, ४७ अनुष्टुपू। ६, १०, १३, १६, १७, २९, ४२ विराडनुष्टुप्। ७, १२, १५, २२ पादनिचृदनुष्टुप्। ४० भुरिगनुष्टुप्। १४, २०, २४, २६, २७ निचृत् त्रिष्टुप्। १९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २१, ४४ विराट् त्रिष्टुप्। २३, २७, ३६ त्रिष्टुप्। १८ पादनिचृज्जगती। ४३ निचृज्जगती। ३४ उरोबृहती॥

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    विषय

    गृह में ही आनन्द का अनुभव

    पदार्थ

    [१] पति-पत्नी को आशीर्वाद देते हुए प्रभु कहते हैं कि (इह एव स्तम्) = तुम दोनों इस घर में ही निवास करनेवाले बनो । (मा वियौष्टम्) = तुम वियुक्त मत हो जाओ। तुम्हारा परस्पर का प्रेम सदा बना रहे । (विश्वं आयुः) = पूर्ण जीवन को (व्यश्नुतम्) = तुम प्राप्त करो। [२] (पुत्रैः) = पुत्रों के साथ (नप्तृभिः) = पौत्रों के साथ (क्रीडन्तौ) = खेलते हुए तुम (स्वे गृहे) = अपने घर में (मोदमानौ) = आनन्दपूर्वक निवास करो। क्रीड़क की मनोवृत्ति बनाकर वर्तने से मनुष्य उलझता तो नहीं पर आनन्द में कमी नहीं आती। इससे विपरीत अवस्था में उलझ जाता है और अपने आनन्द को खो बैठता है । [३] यह भी सम्भव है कि एक व्यक्ति परिस्थितिवश वानप्रस्थ बनने की क्षमता नहीं रखता । वह घर में ही रहे। पर घर में पुत्र-पौत्रों में रहता हुआ उनके साथ क्रीडन करनेवाला हो, आसक्तिवाला नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी का सम्बन्ध अटूट है। ये सदा मिलकर चलें, इनका वियोग न हो। पुत्र- पौत्रों के साथ खेलते हुए ये उनमें उलझें नहीं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इह-एव स्तम्) हे वधूवरौ युवामिह गृहाश्रमे स्थिरौ भवतं (मा वियौष्टम्) न वियुक्तौ भवतं (विश्वम्-आयुः-व्यश्नुतम्) सर्वमायुः प्राप्नुतं (पुत्रैः नप्तृभिः क्रीडन्तौ) पुत्रदुहितृभिः पौत्रैर्दौहित्रैः सह क्रीडां कुर्वन्तौ (स्वे गृहे मोदमानौ) स्वे गृहे हृष्यन्तौ भवेतम् ॥४२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O man and wife, live here itself in the family joined together, never separate, live and enjoy a full life in your own home playing and celebrating life with children and grand children.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    गृहस्थाने परस्पर गृहस्थ धर्माचे पालन करत परस्पर मिळून मिसळून पुत्र, पौत्र इत्यादीबरोबर आनंदित होऊन आपल्या घरात राहावे. ॥४२॥

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