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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 21
    सूक्त - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    इ॒ह प्रि॒यंप्र॒जायै॑ ते॒ समृ॑ध्यताम॒स्मिन्गृ॒हे गार्ह॑पत्याय जागृहि। ए॒ना पत्या॑त॒न्वं सं स्पृ॑श॒स्वाथ॒ जिर्वि॑र्वि॒दथ॒मा व॑दासि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । प्रि॒यम् । प्र॒ऽजायै॑ । ते॒ । सम् । ऋ॒ध्य॒ता॒म् । अ॒स्मिन् । गृ॒हे । गार्ह॑ऽपत्याय । जा॒गृ॒ह‍ि॒ । ए॒ना । पत्या॑ । त॒न्व᳡म् । सम् । स्पृ॒श॒स्व॒ । अथ॑ । जिर्वि॑: । वि॒दथ॑म् । आ । व॒दा॒सि॒ ।१.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इह प्रियंप्रजायै ते समृध्यतामस्मिन्गृहे गार्हपत्याय जागृहि। एना पत्यातन्वं सं स्पृशस्वाथ जिर्विर्विदथमा वदासि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । प्रियम् । प्रऽजायै । ते । सम् । ऋध्यताम् । अस्मिन् । गृहे । गार्हऽपत्याय । जागृह‍ि । एना । पत्या । तन्वम् । सम् । स्पृशस्व । अथ । जिर्वि: । विदथम् । आ । वदासि ।१.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 21

    पदार्थ -
    [हे वधू !] (इह) इस [पतिकुल] में (ते) तेरा (प्रियम्) हित (प्रजायै) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] केलिये (सम्) अच्छे प्रकार (ऋध्यताम्) बढ़े, (अस्मिन् गृहे) इस घर में (गार्हपत्याय) गृहपत्नी के कार्य के लिये (जागृहि) तू जागती रह [सावधान रह]। (एना पत्या) इस पति के साथ (तन्वम्) श्रद्धा को (सं स्पृशस्व) संयुक्त कर, (अथ)और (जिर्विः) स्तुतियोग्य तू (विदथम्) सभागृह में (आ वदासि) बातचीत कर ॥२१॥

    भावार्थ - वधू को योग्य है किपतिकुल में पहुँचकर प्रसन्नचित्त होकर सन्तान, सेवक आदि का यथावत् पालन करके घरके कामों में सावधान रहे, और पति से भक्ति करके संसार में कीर्ति बढ़ावे ॥२१॥यहमन्त्र कुछ भेद से महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में उद्धृतहै−घर पहुँचकर वधूको रथ से उतारना आदि कर्म करके वर इस मन्त्र को बोलकर वधू कोसभामण्डल में ले जावे ॥२१॥

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