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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 34
    सूक्त - आत्मा देवता - प्रस्तार पङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    अ॑नृक्ष॒राऋ॒जवः॑ सन्तु॒ पन्था॑नो॒ येभिः॒ सखा॑यो॒ यन्ति॑ नो वरे॒यम्। सं भगे॑न॒सम॑र्य॒म्णा सं धा॒ता सृ॑जतु॒ वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नृ॒क्ष॒रा: । ऋ॒जव॑: । स॒न्तु॒ । पन्था॑न: । येभि॑: । सखा॑य: । यन्ति॑ । न॒: । व॒रे॒ऽयम् । सम् । भगे॑न । सम् । अ॒र्य॒म्णा । सम् । धा॒ता । सृ॒ज॒तु॒ । वर्च॑सा ॥१.३४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनृक्षराऋजवः सन्तु पन्थानो येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्। सं भगेनसमर्यम्णा सं धाता सृजतु वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनृक्षरा: । ऋजव: । सन्तु । पन्थान: । येभि: । सखाय: । यन्ति । न: । वरेऽयम् । सम् । भगेन । सम् । अर्यम्णा । सम् । धाता । सृजतु । वर्चसा ॥१.३४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 34

    पदार्थ -
    (अनृक्षराः) बिनाकाँटोंवाले (ऋजवः) सीधे (पन्थानः) मार्ग (सन्तु) होवें, (येभिः) जिन से (नः)हमारे (सखायः) मित्र लोग (वरेयम्=वरेण्यम्) सुन्दर विधान से (यन्ति) चलते हैं। (धाता) धारण करनेवाला [परमेश्वर] (भगेन सम्) ऐश्वर्य के साथ (अर्यम्णा सम्)श्रेष्ठों के मान करनेवाले व्यवहार के साथ और (वर्चसा सम्) प्रताप के साथ [हमको] (सृजतु) संयुक्त करे ॥३४॥

    भावार्थ - सब घर के लोग परमेश्वरकी उपासना के साथ विद्वानों के समान विघ्नों का नाश करके श्रेष्ठों के सन्मान सेऐश्वर्यवान् और प्रतापी होवें ॥३४॥इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।८५।२३ ॥

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