अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 28
सूक्त - आत्मा
देवता - सोम
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
आ॒शस॑नंवि॒शस॑न॒मथो॑ अधिवि॒कर्त॑नम्। सू॒र्यायाः॑ पश्य रू॒पाणि॒ तानि॑ ब्र॒ह्मोतशु॑म्भति ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽशस॑नम् । वि॒ऽशस॑नम् । अथो॒ इति॑ । अ॒धि॒ऽवि॒कर्त॑नम् । सू॒र्याया॑: । प॒श्य॒ । रू॒पाणि॑ । तानि॑ । ब्र॒ह्मा । उ॒त । शु॒म्भ॒ति॒ ॥१.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
आशसनंविशसनमथो अधिविकर्तनम्। सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मोतशुम्भति ॥
स्वर रहित पद पाठआऽशसनम् । विऽशसनम् । अथो इति । अधिऽविकर्तनम् । सूर्याया: । पश्य । रूपाणि । तानि । ब्रह्मा । उत । शुम्भति ॥१.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 28
विषय - विवाह संस्कार का उपदेश।
पदार्थ -
(सूर्यायाः) प्रेरणाकरनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (आशसनम्) आशंसा [अप्राप्तके पाने की इच्छा], (विशसनम्) विशंसा [प्राप्त का शुभ कर्मों में व्यय] (अथो) औरभी (अधिविकर्तनम्) अधिकारपूर्वक विघ्नों का छेदन, (रूपाणि) इन रूपों [सुन्दरलक्षणों] को (पश्य) तू देख, (तानि) उन [सुन्दर लक्षणों] को (ब्रह्मा) ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (उत) ही (शुम्भति) शोभायमान करता है ॥२८॥
भावार्थ - जब वधू-वर परस्पर शुभगुणों और मर्यादाओं का मान करते हैं, तब उत्तम प्रबन्ध से उस गृहाश्रम की शोभाबढ़ती है ॥२८॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३५ ॥
टिप्पणी -
२८−(आशसनम्) आङःशसि इच्छायाम्-ल्युट्, नकारलोपः। आशंसा। अप्राप्तस्य प्राप्तीच्छा (विशसनम्)वि+शसि इच्छायाम्-ल्युट्, नलोपः। प्राप्तस्य शुभकर्मसु व्ययः (अथो) अपि च (अधिविकर्तनम्) कृती छेदने वेष्टने च-ल्युट्। अधिकृत्य विघ्नानां छेदनम् (सूर्यायाः) प्रेरिकायाः कन्यायाः (पश्य) अवलोकय (रूपाणि) लक्षणानि (तानि)लक्षणानि (ब्रह्मा) वेदवेत्ता पतिः (उत) एव (शुम्भति) दीपयति। शोभयति ॥