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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 56
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    इ॒दं तद्रू॒पंयदव॑स्त॒ योषा॑ जा॒यां जि॑ज्ञासे॒ मन॑सा॒ चर॑न्तीम्। तामन्व॑र्तिष्ये॒सखि॑भि॒र्नव॑ग्वैः॒ क इ॒मान्वि॒द्वान्वि च॑चर्त॒ पाशा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । तत् । रू॒पम् । यत् । अव॑स्त । योषा॑ । जा॒याम् । जि॒ज्ञा॒से॒ । मन॑सा । चर॑न्तीम् । ताम् । अनु॑ । अ॒र्ति॒ष्ये॒ । सखि॑ऽभि: । नव॑ऽग्वै: । क: । इ॒मान् । वि॒द्वान् । वि । च॒च॒र्त॒ । पाशा॑न् ॥१.५६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं तद्रूपंयदवस्त योषा जायां जिज्ञासे मनसा चरन्तीम्। तामन्वर्तिष्येसखिभिर्नवग्वैः क इमान्विद्वान्वि चचर्त पाशान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । तत् । रूपम् । यत् । अवस्त । योषा । जायाम् । जिज्ञासे । मनसा । चरन्तीम् । ताम् । अनु । अर्तिष्ये । सखिऽभि: । नवऽग्वै: । क: । इमान् । विद्वान् । वि । चचर्त । पाशान् ॥१.५६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 56

    पदार्थ -
    (इदम्) यह (तत्) वह (रूपम्) रूप [सुन्दरता व स्वभाव] है, (यत्) जिसको (योषा) सेवनीय (वधू) ने (अवस्त) धारण किया है, (मनसा) विज्ञान के साथ (चरन्तीम्) चलती हुई (जायाम्)पत्नी को (जिज्ञासे) मैं जानना चाहता हूँ। (नवग्वैः) स्तुतियोग्य चरित्रवालेअथवा नवीन-नवीन विद्या को प्राप्त करने और करानेहारे (सखिभिः) मित्रों के सहित (ताम् अनु) उस [पत्नी] के साथ-साथ (अर्तिष्ये) मैं चलूँगा, (विद्वान्) विद्वान् (कः) प्रजापति [परमेश्वर] ने (इमान् पाशान्) इन [अविद्या के] फन्दों को (विचचर्त) खोल दिया है ॥५६॥

    भावार्थ - विद्या सुशीलता आदिगुणों से सुभूषित पति-पत्नी सुयोग्य इष्ट मित्रों सहित शुभ गुणों का आदर करकेपरस्पर हित करें और परमेश्वर को धन्यवाद दें कि जिसके अनुग्रह से ऐसा शुभ अवसरमिला है ॥५६॥

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