Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
    सूक्त - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    स॒म्राज्ञ्ये॑धि॒श्वशु॑रेषु स॒म्राज्ञ्यु॒त दे॒वृषु॑। नना॑न्दुः स॒म्राज्ञ्ये॑धि स॒म्राज्ञ्यु॒तश्व॒श्र्वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । श्वशु॑रेषु । स॒म्ऽराज्ञी॑ । उ॒त । दे॒वृषु॑ । नना॑न्दृ: । स॒म्ऽराज्ञी॑ । ए॒धि॒ । स॒म्ऽराज्ञी॑ । उ॒त । श्व॒श्वा: ॥१.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्राज्ञ्येधिश्वशुरेषु सम्राज्ञ्युत देवृषु। ननान्दुः सम्राज्ञ्येधि सम्राज्ञ्युतश्वश्र्वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽराज्ञी । एधि । श्वशुरेषु । सम्ऽराज्ञी । उत । देवृषु । ननान्दृ: । सम्ऽराज्ञी । एधि । सम्ऽराज्ञी । उत । श्वश्वा: ॥१.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 44

    पदार्थ -
    [हे वधू !] तू (श्वशुरेषु) अपने ससुर आदि [मेरे पिता आदि गुरु जनों] के बीच (सम्राज्ञी)राजराजेश्वरी, (उत) और (देवृषु) अपने देवरों [मेरे बड़े और छोटे भाइयों] के बीच (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो। (ननान्दुः) अपनी ननद [मेरी बहिन] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी, (उत) और (श्वश्र्वाः) अपनी सासु [मेरी माता] की (सम्राज्ञी) राजराजेश्वरी (एधि) हो ॥४४॥

    भावार्थ - वधू विद्या और बुद्धिके बल से अपने कर्तव्यों में ऐसी चतुर हो कि ससुर, सासु, देवर, ननद आदि सब बड़े-छोटे जन उसकी बड़ी प्रतिष्ठा करें ॥४४॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।४६। और महर्षिदयानन्दकृत संस्काविधि विवाहप्रकरण में पति के घर पहुँचकरवधू-वर के हवन करने में व्याख्यात है ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top