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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
    सूक्त - आत्मा देवता - पुरस्ताद् बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    तृ॒ष्टमे॒तत्कटु॑कमपा॒ष्ठव॑द्वि॒षव॒न्नैतदत्त॑वे। सू॒र्यां यो ब्र॒ह्मा वेद॒ सइद्वाधू॑यमर्हति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तृ॒ष्टम् । ए॒तत् । कटु॑कम् । अ॒पा॒ष्ठऽव॑त् । वि॒षऽव॑त् । न । ए॒तत् । अत्त॑वे । सू॒र्याम्‌ । य: । ब्र॒ह्मा । वेद॑ । स: । इत् । वाधू॑ऽयम् । अ॒र्ह॒ति॒ ॥१.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तृष्टमेतत्कटुकमपाष्ठवद्विषवन्नैतदत्तवे। सूर्यां यो ब्रह्मा वेद सइद्वाधूयमर्हति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तृष्टम् । एतत् । कटुकम् । अपाष्ठऽवत् । विषऽवत् । न । एतत् । अत्तवे । सूर्याम्‌ । य: । ब्रह्मा । वेद । स: । इत् । वाधूऽयम् । अर्हति ॥१.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 29

    पदार्थ -
    (एतत्) यह [पूर्वोक्तशुभ लक्षण वधू-वर के विरोध में] (तृष्टम्) दाहजनक, (कटुकम्) कडुवा [अप्रिय], (अपाष्ठवत्) अपस्थान [अपमान] युक्त और (विषवत्) विषसमान [होता है], (एतत्) यह [विरुद्धपन] (अत्तवे) प्रबन्ध करने के लिये (न) नहीं [होता]। (यः) जो (ब्रह्मा)ब्रह्मा [वेदवेत्ता पति] (सूर्याम्) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समानतेजवाली] कन्या को (वेद) जानता है, (सः इत्) वही (वाधूयम्) विवाह कर्म के (अर्हति) योग्य होता है ॥२९॥

    भावार्थ - जहाँ पर वधू-वर परस्परविरोधी निर्गुणी होते हैं, वहाँ गृहाश्रम में विपत्ति रहती है, और जब दोनोंपूर्ण विद्वान् और युवा होकर परस्पर गुण जानकर विवाह करते हैं, तब वे गृहाश्रममें आनन्द भोगते हैं ॥२९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।३४॥

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