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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
    सूक्त - आत्मा देवता - आस्तार पङ्क्ति छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    यदया॑तं शुभस्पतीवरे॒यं सू॒र्यामुप॑। विश्वे॑ दे॒वा अनु॒ तद्वा॑मजानन्पु॒त्रः पि॒तर॑मवृणीतपू॒षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अया॑तम् । शु॒भ॒: । प॒ती॒ इति॑ । व॒रे॒ऽयम् । सू॒र्याम् । उप॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अनु॑ । तत् । वा॒म् । अ॒जा॒न॒न् । पु॒त्र: । पि॒तर॑म् । अ॒वृ॒णी॒त॒ । पू॒षा ।१.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदयातं शुभस्पतीवरेयं सूर्यामुप। विश्वे देवा अनु तद्वामजानन्पुत्रः पितरमवृणीतपूषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अयातम् । शुभ: । पती इति । वरेऽयम् । सूर्याम् । उप । विश्वे । देवा: । अनु । तत् । वाम् । अजानन् । पुत्र: । पितरम् । अवृणीत । पूषा ।१.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    (शुभः पती) हे शुभक्रिया के पालन करनेवाले [स्त्री-पुरुष समूह !] तुम दोनों (यत्) जब (सूर्याम्=सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (वरेयम्) श्रेष्ठ कर्म में (उप) आदर से (अयातम्) पहुँचो। (विश्वे देवाः) सबविद्वान् लोग (वाम्) तुम दोनों के (तत्) उस [कर्म] में (अनु अजानन्) सम्मति दें [कि] (पूषा) पोषण करनेवाला (पुत्रः) पुत्र (पितरम्) पिता को (अवृणीत) स्वीकारकरे ॥१५॥

    भावार्थ - शुभचिन्तक स्त्रीपुरुषविवाह में आकर प्रयत्न करें कि विद्वान् लोग प्रसन्न होकर आशीर्वाद दें कि उनवधू-वर का पुत्र पोषण करनेवाला विद्वान् पराक्रमी होवे ॥१५॥यह मन्त्र ऋग्वेद मेंहै−१०।८५।१४, १५ ॥

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