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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 46
    सूक्त - आत्मा देवता - जगती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    जी॒वं रु॑दन्ति॒वि न॑यन्त्यध्व॒रं दी॒र्घामनु॒ प्रसि॑तिं दीध्यु॒र्नरः॑। वा॒मं पि॒तृभ्यो॒ यइ॒दं स॑मीरि॒रे मयः॒ पति॑भ्यो ज॒नये॑ परि॒ष्वजे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जी॒वम् । रु॒द॒न्ति॒ । वि । न॒य॒न्ति॒ । अ॒ध्व॒रम् । दी॒र्घाम् । अनु॑ । प्रऽसि॑तिम् । दी॒ध्यु॒: । नर॑: । वा॒मम् । पि॒तृऽभ्य: । ये । इ॒दम् । स॒म्ऽई॒रि॒रे । मय॑: । पति॑:ऽभ्य: । ज॒नये॑ । प॒रि॒ऽस्वजे॑ ॥१.४६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जीवं रुदन्तिवि नयन्त्यध्वरं दीर्घामनु प्रसितिं दीध्युर्नरः। वामं पितृभ्यो यइदं समीरिरे मयः पतिभ्यो जनये परिष्वजे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जीवम् । रुदन्ति । वि । नयन्ति । अध्वरम् । दीर्घाम् । अनु । प्रऽसितिम् । दीध्यु: । नर: । वामम् । पितृऽभ्य: । ये । इदम् । सम्ऽईरिरे । मय: । पति:ऽभ्य: । जनये । परिऽस्वजे ॥१.४६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 46

    पदार्थ -
    (नरः) नर [नेता लोग] (जीवम्) [संसार के] जीवन के लिये [प्रेम से] (रुदन्ति) आँसू बहाते हैं, (अध्वरम्) हिंसारहित व्यवहार को (वि) विविध प्रकार (नयन्ति) ले चलते हैं, और (दीर्घाम्) लम्बी (प्रसितिम् अनु) प्रबन्ध क्रिया के साथ (दीध्युः) प्रकाशमानहोते हैं। (ये) जिन [पुरुषार्थियों] ने (पितृभ्यः) पिता आदि मान्य लोगों के लिये (इदम्) यह (वामम्) श्रेष्ठ पदार्थ (समीरिरे) पहुँचाया है, (पतिभ्यः) उन रक्षकपुरुषों के लिये [पति से] (जनये परिष्वजे) पत्नी का मिलना (मयः) सुखदायक है ॥४६॥

    भावार्थ - करुणाशील, शूरवीरपुरुष गृहाश्रम में हिंसा त्यागकर दृढ़ प्रबन्ध करके यश पाते हैं। जो मनुष्य इसश्रेष्ठ सिद्धान्त को विद्वानों में फैलाते हैं, वे विद्वान् गृहाश्रमी स्त्री-पुरुषों से विद्यावृद्धि में सुख पाते हैं ॥४६॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद मेंहै−१०।४०।१०, और महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू को पितृ-गृह छोड़ते समय आँख में आँसू भर लाने पर वर के बोलने में लिखा है ॥

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