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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 60
    सूक्त - आत्मा देवता - परानुष्टुप् त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    भग॑स्ततक्षच॒तुरः॒ पादा॒न्भग॑स्ततक्ष च॒त्वार्युष्प॑लानि। त्वष्टा॑ पिपेश मध्य॒तोऽनु॒वर्ध्रा॒न्त्सा नो॑ अस्तु सुमङ्ग॒ली ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भग॑: । त॒त॒क्ष॒ । च॒तुर॑: । पादा॑न् । भग॑: । त॒त॒क्ष॒ । च॒त्वार‍ि॑ । उष्प॑लानि । त्वष्टा॑ । पि॒पे॒श॒ । म॒ध्य॒त: । अनु॑ । वर्ध्रा॑न् । सा । न॒: । अ॒स्तु॒ । सु॒ऽम॒ङ्ग॒ली ॥१.६०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भगस्ततक्षचतुरः पादान्भगस्ततक्ष चत्वार्युष्पलानि। त्वष्टा पिपेश मध्यतोऽनुवर्ध्रान्त्सा नो अस्तु सुमङ्गली ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भग: । ततक्ष । चतुर: । पादान् । भग: । ततक्ष । चत्वार‍ि । उष्पलानि । त्वष्टा । पिपेश । मध्यत: । अनु । वर्ध्रान् । सा । न: । अस्तु । सुऽमङ्गली ॥१.६०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 60

    पदार्थ -
    (भगः) भगवान् [ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (चतुरः) चार [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप] (पादान्)प्राप्तियोग्य पदार्थ (ततक्ष) रचे हैं, (भगः) भगवान् ने (चत्वारि) चार [ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम रूप] (उष्पलानि) हिंसा सेबचानेवाले कर्म (ततक्ष) बनाये हैं। (त्वष्टा) विश्वकर्मा [परमेश्वर] ने (मध्यतः)बीच में [स्त्री-पुरुषों के भीतर] (वर्ध्रान्) वृद्धिव्यवहारों की (अनु) अनुकूल (पिपेश) व्यवस्था की है, (सा) वह [वधू] (नः) हमारेलिये (सुमङ्गली) सुमङ्गली [बड़ी आनन्द देनेवाली] (अस्तु) होवे ॥६०॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने वेदोंद्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और उनके साधन ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का उपदेश करके संसार के उपकार के लिये स्त्री-पुरुषों को ज्ञान और बुद्धि रूप वृद्धि कासामर्थ्य दिया है ॥६०॥

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