Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 63
    सूक्त - आत्मा देवता - सोम छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    मा हिं॑सिष्टंकुमा॒र्यं स्थूणे॑ दे॒वकृ॑ते प॒थि। शाला॑या दे॒व्या द्वारं॑ स्यो॒नं कृ॑ण्मोवधूप॒थम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । हिं॒सि॒ष्ट॒म् । कु॒मा॒र्य᳡म् । स्थूणे॒ इति॑ । दे॒वऽकृ॑ते । प॒थि । शाला॑या: । दे॒व्या: । द्वार॑म् । स्यो॒नम् । कृ॒ण्म॒: । व॒धू॒ऽप॒थम् ॥१.६३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा हिंसिष्टंकुमार्यं स्थूणे देवकृते पथि। शालाया देव्या द्वारं स्योनं कृण्मोवधूपथम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । हिंसिष्टम् । कुमार्यम् । स्थूणे इति । देवऽकृते । पथि । शालाया: । देव्या: । द्वारम् । स्योनम् । कृण्म: । वधूऽपथम् ॥१.६३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 63

    पदार्थ -
    (स्थूणे) हे दोनोंस्थिर स्वभाववाली [स्त्री-पुरुषों की पङ्क्ति !] (कुमार्यम्) कुमारी [कन्याअर्थात् वधू] को (देवकृते) विद्वानों के बनाये (पथि) मार्ग में (मा हिंसिष्टम्)मत कष्ट पाने दो। (देव्याः) व्यवहारयोग्य (शालायाः) शाला के (स्योनम्) सुखदायक (द्वारम्) द्वार को (वधूपथम्) वधू का मार्ग (कृण्मः) हम बनाते हैं ॥६३॥

    भावार्थ - सब स्त्री-पुरुष प्रयत्न करें कि पितृकुल से पृथक् होकर वधू प्रसन्न रहे और जैसे सुन्दर स्वच्छशाला के सुन्दर स्वच्छ द्वार में होकर जाने-आने में सुख होता है, वैसे हीसुप्रबन्धवाले गृहाश्रम में वधू को सुख मिले ॥६३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top