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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    रैभ्या॑सीदनु॒देयी॑ नाराशं॒सी न्योच॑नी।सू॒र्याया॑ भ॒द्रमिद्वासो॒ गाथ॑यति॒परि॑ष्कृता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रैभी॑ । आ॒सी॒त् । अ॒नु॒ऽदेयी॑ । ना॒रा॒शं॒सी । नि॒ऽओच॑नी । सू॒र्याया॑: । भ॒द्रम् । इत् । वास॑: । गाथ॑या । ए॒ति॒ । परि॑ष्कृता ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी न्योचनी।सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयतिपरिष्कृता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रैभी । आसीत् । अनुऽदेयी । नाराशंसी । निऽओचनी । सूर्याया: । भद्रम् । इत् । वास: । गाथया । एति । परिष्कृता ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (रैभी) वेदवाणी (सूर्यायाः) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या की (अनुदेयी) साथिन [समान] और (नाराशंसी) मनुष्यों के गुणों की स्तुति (न्योचनी)नौची [छोटी सहेली समान] (आसीत्) हो। और (भद्रम्) शुभ कर्म (इत्) ही (वासः)वस्त्र [समान] हो [क्योंकि वह] (गाथया) गाने योग्य वेदविद्या से (परिष्कृता)सजी हुई (एति) चलती है ॥७॥

    भावार्थ - कन्या वेदों औरइतिहासों को पढ़कर विचारकर शुभ कर्म करती हुई उत्तम विद्या से अपनी शोभा बढ़ावे॥७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।६ ॥

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