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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
    सूक्त - आत्मा देवता - पुरस्ताद् बृहती छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    बृह॒स्पतिः॑प्रथ॒मः सू॒र्यायाः॑ शी॒र्षे केशाँ॑ अकल्पयत्। तेने॒माम॑श्विना॒ नारीं॒ पत्ये॒सं शो॑भयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पति॑:। प्र॒थ॒म: । सू॒र्याया॑: । शी॒र्षे । केशा॑न् । अ॒क॒ल्प॒य॒त् । तेन॑ । इ॒माम्। अ॒श्वि॒ना॒ । नारी॑म् । पत्ये॑ । सम् । शो॒भ॒या॒म॒सि॒ ॥१.५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिःप्रथमः सूर्यायाः शीर्षे केशाँ अकल्पयत्। तेनेमामश्विना नारीं पत्येसं शोभयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पति:। प्रथम: । सूर्याया: । शीर्षे । केशान् । अकल्पयत् । तेन । इमाम्। अश्विना । नारीम् । पत्ये । सम् । शोभयामसि ॥१.५५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 55

    पदार्थ -
    (प्रथमः) पहिले से हीवर्तमान (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों के स्वामी [परमेश्वर] ने (सूर्यायाः)प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या के (शीर्षे) मस्तक पर (केशान्) केशों को (अकल्पयत्) बनाया है। (तेन) इस [कारण] से (अश्विना) हे विद्याको प्राप्त दोनों [स्त्री-पुरुषों के समाज !] (इमाम् नारीम्) इस नारी को (पत्ये)पति के लिये (सम्) ठीक-ठीक (शोभयामसि) हम शोभायमान करते हैं ॥५५॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने शिर केकेशों और वैसे ही शरीर के अङ्गों को अपने-अपने प्रयोजन के लिये सुडौल बनाया है।गुरुजनों को योग्य है कि वधू-वर को संसार के हित के लिये विद्या सुशीलता आदि सेसुशिक्षित करें कि वे अपने शरीर के अङ्गों को सुडौल और हृष्ट-पुष्ट रक्खें ॥५५॥

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