अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
सूक्त - सोम
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
यत्त्वा॑ सोमप्र॒पिब॑न्ति॒ तत॒ आ प्या॑यसे॒ पुनः॑। वा॒युः सोम॑स्य रक्षि॒ता समा॑नां॒ मास॒आकृ॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । त्वा॒ । सो॒म॒ । प्र॒ऽपिब॑न्ति । तत॑: । आ । प्या॒य॒से॒ । पुन॑: । वा॒यु: । सोम॑स्य । र॒क्षि॒ता । समा॑नाम् । मास॑: । आऽकृ॑ति: ॥१.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्त्वा सोमप्रपिबन्ति तत आ प्यायसे पुनः। वायुः सोमस्य रक्षिता समानां मासआकृतिः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । त्वा । सोम । प्रऽपिबन्ति । तत: । आ । प्यायसे । पुन: । वायु: । सोमस्य । रक्षिता । समानाम् । मास: । आऽकृति: ॥१.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
विषय - मन्त्र १-५, प्रकाश करने योग्य और प्रकाशक के विषय काउपदेश।
पदार्थ -
(सोमः) हे चन्द्रमा ! (यत्) जब (त्वा) तुझको (प्रपिबन्ति) वे [किरणें] पी जाती हैं, (ततः) तब (पुनः)फिर (आ प्यायसे) तू परिपूर्ण हो जाता है। (वायुः) पवन (सोमस्य) चन्द्रमा का (रक्षिता) रक्षक है और (मासः) सबका परिमाण करनेवाला [परमेश्वर] (समानाम्) अनुकूलक्रियाओं का (आकृतिः) बनानेवाला है ॥४॥
भावार्थ - जब चन्द्रमा के रस कोसूर्य की किरणें खीच लेती हैं, वह रस पृथिवी पर किरणों द्वारा आता और पदार्थोंको पुष्ट करता है, फिर वह पार्थिव रस किरणों से वायु द्वारा खिंचकर चन्द्रमा कोपहुँचता है। इस प्रकार चन्द्रमा ईश्वरनियम से प्राणियों का सदा उपकारी होता है॥४॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८५।५ ॥
टिप्पणी -
४−(यत्) यदा (त्वा) (सोमः) हेचन्द्र (प्रपिबन्ति) आकर्षन्ति रश्मयः (ततः) अनन्तरम् (आ प्यायसे) प्रवर्द्धसे (पुनः) (वायुः) (सोमस्य) चन्द्रस्य (रक्षिता) रक्षकः (समानाम्) सम्-टाप्।अनुकूलानां क्रियाणाम् (मासः) मसी परिमाणे परिणामे च-घञ्। परिमाणकर्ता (आकृतिः)अकर्ता। रचयिता ॥