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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    सूक्त - स्वविवाह देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    चित्ति॑राउप॒बर्ह॑णं॒ चक्षु॑रा अ॒भ्यञ्ज॑नम्। द्यौर्भूमिः॒ कोश॒ आसी॒द्यदया॑त्सू॒र्यापति॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चित्ति॑: । आ॒: । उ॒प॒ऽबर्ह॑णम् । चक्षु॑: । आ॒: । अ॒भि॒ऽअञ्ज॑नम् । द्यौ: । भूमि॑ । कोश॑: । आ॒सी॒त् । यत् । अया॑त् । सू॒र्या । पति॑म् ॥१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्तिराउपबर्हणं चक्षुरा अभ्यञ्जनम्। द्यौर्भूमिः कोश आसीद्यदयात्सूर्यापतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्ति: । आ: । उपऽबर्हणम् । चक्षु: । आ: । अभिऽअञ्जनम् । द्यौ: । भूमि । कोश: । आसीत् । यत् । अयात् । सूर्या । पतिम् ॥१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (चित्तिः) चेतना [कन्या की] (उपबर्हणम्) छोटी ओढ़नी [समान] (आः) होवे, (चक्षुः) दर्शनसामर्थ्य (अभ्यञ्जनम्) उबटन [शरीर मलने के द्रव्य के तुल्य] (आः) होवे। (द्यौः) आकाश और (भूमिः) भूमि (कोशः) निधिमञ्जूषा [पेटी पिटारी समान] (आसीत्) होवे, (यत्) जब (सूर्या) प्रेरणा करनेवाली [वा सूर्य की चमक के समान तेजवाली] कन्या (पतिम्) पतिको (अयात्) प्राप्त होवे ॥६॥

    भावार्थ - जब कन्या बाहिरीउपकरणों की उपेक्षा करके भीतरी विद्याबल से चेतन्य स्वभाव, और पदार्थों को दिव्यदृष्टि से देखनेवाली, और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने करानेवाली हो, तब सुयोग्य पति से ब्याह करे ॥६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।८५।७ ॥

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