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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    सूक्त - आत्मा देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    स्यो॒नं ध्रु॒वंप्र॒जायै॑ धारयामि॒ तेऽश्मा॑नं दे॒व्याः पृ॑थि॒व्या उ॒पस्थे॑। तमाति॑ष्ठानु॒माद्या॑ सु॒वर्चा॑ दी॒र्घं त॒ आयुः॑ सवि॒ता कृ॑णोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्यो॒नम् । ध्रु॒वम् । प्र॒ऽजायै॑ । धा॒र॒या॒मि॒ । ते॒ । अश्मा॑नम् । दे॒व्या: । पृ॒थि॒व्या॒: । उ॒पऽस्थे॑ । तम् । आ । ति॒ष्ठ॒ । अ॒नु॒ऽमाद्या॑ । सु॒ऽवर्चा॑: । दी॒र्घम् । ते॒ । आयु॑: । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्योनं ध्रुवंप्रजायै धारयामि तेऽश्मानं देव्याः पृथिव्या उपस्थे। तमातिष्ठानुमाद्या सुवर्चा दीर्घं त आयुः सविता कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्योनम् । ध्रुवम् । प्रऽजायै । धारयामि । ते । अश्मानम् । देव्या: । पृथिव्या: । उपऽस्थे । तम् । आ । तिष्ठ । अनुऽमाद्या । सुऽवर्चा: । दीर्घम् । ते । आयु: । सविता । कृणोतु ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 47

    पदार्थ -
    (स्योनम्) सुखदायक, (ध्रुवम्) दृढ़ (अश्मानम्) पत्थर को (देव्याः) दिव्य गुणवाली (पृथिव्याः) पृथिवीकी (उपस्थे) गोद में (प्रजायै) प्रजा [सन्तान, सेवक आदि] के निमित्त (ते) तेरेलिये (धारयामि) मैं [पति] रखता हूँ। (अनुमाद्या) निरन्तर हर्ष मनाती हुई और (सुवर्चाः) बड़ी प्रतापवाली तू (तम्) उस [पत्थर] पर (आ तिष्ठ) खड़ी हो, (सविता)सबका उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर (ते) तेरी (आयुः) आयु को (दीर्घम्) लम्बी (कृणोतु) करे ॥४७॥

    भावार्थ - जिस प्रकार पृथिवी परपत्थर पहाड़ दृढ़ होकर रहते हैं, इसी प्रकार वधू-वर दृढ़ प्रतिज्ञा के साथगृहाश्रम को सिद्ध करके आनन्द पावें ॥४७॥इस मन्त्र से वधू को वर शिला पर खड़ाकरावे। महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि विवाहप्रकरण में वधू के लिये शिला परचढ़ाना अन्य मन्त्र से लिखा है ॥

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