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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    सूक्त - सोम देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    सोमं॑ मन्यतेपपि॒वान्यत्सं॑पिं॒षन्त्योष॑धिम्। सोमं॒ यं ब्र॒ह्माणो॑ वि॒दुर्न तस्या॑श्नाति॒पार्थि॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑म् । म॒न्य॒ते॒ । प॒पि॒ऽवान् । यत् । स॒म्ऽपि॒षन्ति॑ । ओष॑धिम् । सोम॑म् । यम् । ब्र॒ह्माण॑: । वि॒दु: । न । तस्य॑ । अ॒श्ना॒ति॒ । पार्थि॑व: ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमं मन्यतेपपिवान्यत्संपिंषन्त्योषधिम्। सोमं यं ब्रह्माणो विदुर्न तस्याश्नातिपार्थिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमम् । मन्यते । पपिऽवान् । यत् । सम्ऽपिषन्ति । ओषधिम् । सोमम् । यम् । ब्रह्माण: । विदु: । न । तस्य । अश्नाति । पार्थिव: ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (सोमम्) चन्द्रमा [केअमृत] को (पपिवान्) मैंने पी लिया, [यह बात मनुष्य] (मन्यते) मानता है, (यत्) जब (ओषधिम्) ओषधि [अन्न, सोमलता आदि] को (संपिषन्ति) वे [मनुष्य] पीसते हैं। (यम्)जिस (सोमम्) जगत्स्रष्टा परमात्मा को (ब्रह्माणः) ब्रह्मज्ञानी लोग (विदुः)जानते हैं, (तस्य) उसका [अनुभव] (पार्थिवः) पृथिवी [के विषय] में आसक्त पुरुष (न) नहीं (अश्नाति) भोगता है ॥३॥

    भावार्थ - चन्द्रमा से पुष्टहुए अन्न सोमलता आदि के सेवन से मनुष्य शरीरपुष्टि करते हैं, परन्तु जो मनुष्यविद्वानों का सत्सङ्ग करके ईश्वरज्ञान से आत्मा को पुष्ट करते हैं, वे शरीरपोषकों की अपेक्षा अधिक आनन्द पाते हैं ॥३॥

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