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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 111
    ऋषिः - पावकाग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराडार्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    ऋ॒तावा॑नं महि॒षं वि॒श्वद॑र्शतम॒ग्निꣳ सु॒म्नाय॑ दधिरे पु॒रो जनाः॑। श्रुत्क॑र्णꣳ स॒प्रथ॑स्तमं त्वा गि॒रा दैव्यं॒ मानु॑षा यु॒गा॥१११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तावा॑नम्। ऋ॒तवा॑नमित्यृ॒तऽवा॑नम्। म॒हि॒षम्। वि॒श्वद॑र्शत॒मिति॑ वि॒श्वऽद॑र्शतम्। अ॒ग्निम्। सु॒म्नाय॑। द॒धि॒रे॒। पु॒रः। जनाः॑। श्रुत्क॑र्ण॒मिति॒ श्रुत्ऽक॑र्णम्। स॒प्रथ॑स्तम॒मिति॑ स॒प्रथः॑ऽतमम्। त्वा॒। गि॒रा। दैव्य॑म्। मानु॑षा। यु॒गा ॥१११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतावानम्महिषँविश्वदर्शतमग्निँ सुम्नाय दधिरे पुरो जनाः । श्रुत्कर्णँ सप्रथस्तमन्त्वा गिरा दैव्यम्मानुषा युगा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतावानम्। ऋतवानमित्यृतऽवानम्। महिषम्। विश्वदर्शतमिति विश्वऽदर्शतम्। अग्निम्। सुम्नाय। दधिरे। पुरः। जनाः। श्रुत्कर्णमिति श्रुत्ऽकर्णम्। सप्रथस्तममिति सप्रथःऽतमम्। त्वा। गिरा। दैव्यम्। मानुषा। युगा॥१११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 111
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! যেমন (জনাঃ) বিদ্যাও বিজ্ঞান দ্বারা প্রসিদ্ধ মনুষ্য (গিরা) বাণী দ্বারা (সুম্নায়) সুখের জন্য (দৈব্যম্) বিদ্বান্দের মধ্যে কুশল (শ্রুৎকর্ণম্) বহু শ্রুত (বিশ্বদর্শতম্) সর্বদ্রষ্টা (সপ্রথস্তমম্) অত্যন্ত বিদ্যার বিস্তার সহ বর্ত্তমান (ঋতাবানম্) বহু সত্যাচরণ দ্বারা যুক্ত (মহিষম্) মহা (অগ্নিম্) বিদ্বান্কে (মানুষা) মনুষ্যদিগের (য়ুগা) বর্ষ বা সত্যযুগাদি (পুরঃ) প্রথম (দধিরে) ধারণ করে সেইরূপ বিদ্বান্কে এবং এই সব বর্ষকে তুমিও ধারণ কর এই (ত্বা) তোমাকে শেখাই ॥ ১১১ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যে সৎপুরুষ হইয়াছে তারই অনুকরণ মনুষ্যগণ করিবে, অন্য অধর্মীদের নয় ॥ ১১১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - ঋ॒তাবা॑নং মহি॒ষং বি॒শ্বদ॑র্শতম॒গ্নিꣳ সু॒ম্নায়॑ দধিরে পু॒রো জনাঃ॑ ।
    শ্রুৎক॑র্ণꣳ স॒প্রথ॑স্তমং ত্বা গি॒রা দৈব্যং॒ মানু॑ষা য়ু॒গা ॥ ১১১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ঋতাবানমিত্যস্য পাবকাগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । স্বরাডার্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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