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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 86
    ऋषिः - भिषगृषिः देवता - वैद्यो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    यस्यौ॑षधीः प्र॒सर्प॒थाङ्ग॑मङ्गं॒ परु॑ष्परुः। ततो॒ यक्ष्मं॒ विबा॑धध्वऽउ॒ग्रो म॑ध्यम॒शीरि॑व॥८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑। ओष॑धीः। प्र॒सर्प॒थेति॑ प्र॒ऽसर्प॑थ। अङ्ग॑मङ्ग॒मित्यङ्ग॑म्ऽअङ्गम्। प॑रुष्परुः। परुः॑परु॒रिति॒ परुः॑ऽपरुः। ततः॑। यक्ष्म॑म्। वि। बा॒ध॒ध्वे॒। उ॒ग्रः। म॒ध्य॒म॒शीरि॒वेति॑ मध्यम॒शीःऽइ॑व ॥८६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यौषधीः प्रसर्पथाङ्गम्ङ्गम्परुष्परुः । ततो यक्ष्मँ वि बाधध्व उग्रो मध्यमशीरिव ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। ओषधीः। प्रसर्पथेति प्रऽसर्पथ। अङ्गमङ्गमित्यङ्गम्ऽअङ्गम्। परुष्परुः। परुःपरुरिति परुःऽपरुः। ततः। यक्ष्मम्। वि। बाधध्वे। उग्रः। मध्यमशीरिवेति मध्यमशीःऽइव॥८६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 86
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা (য়স্য) যাহার (অঙ্গমঙ্গম্) সকল অবয়ব এবং (পরুষ্পরুঃ) মর্ম মর্মের প্রতি বর্ত্তমান তাহার সেই (উগ্রঃ) তীব্র (য়ক্ষ্মম্) ক্ষয়রোগকে (মধ্যমশীরিব) মধ্যের মর্মস্থানগুলিকে কাটিবার সমান (বিবাধধ্বে) বিশেষ করিয়া নিবৃত্ত কর (ততঃ) তাহার পশ্চাৎ (ওষধীঃ) ওষধি সকলকে (প্রসর্পথ) প্রাপ্ত হও ॥ ৮৬ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- যে মনুষ্যগণ শাস্ত্রানুযায়ী ওষধের সেবন করিবে তাহা হইলে সকল অবয়ব হইতে রোগ বহির্ভূত হইয়া সুখী থাকিবে ॥ ৮৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - য়স্যৌ॑ষধীঃ প্র॒সর্প॒থাঙ্গ॑মঙ্গং॒ পর॑ুষ্পরুঃ ।
    ততো॒ য়ক্ষ্মং॒ বি বা॑ধধ্বऽউ॒গ্রো ম॑ধ্যম॒শীরি॑ব ॥ ৮৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - য়স্যৌষধীরিত্যস্য ভিষগৃষিঃ । বৈদ্যো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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