Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 77
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी गायत्री स्वरः - षड्जः
    1

    अग्ने॒ तम॒द्याश्व॒न्न स्तोमैः॒ क्रतु॒न्न भ॒द्रꣳ हृ॑दि॒स्पृश॑म्। ऋ॒ध्यामा॑ त॒ऽओहैः॑॥७७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। तम्। अ॒द्य। अश्व॑म्। न। स्तोमैः॑। क्रतु॑म्। न। भ॒द्रम्। हृ॒दि॒ऽस्पृश॑म्। ऋ॒ध्याम॑। ते॒। ओहैः॑ ॥७७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने तमद्याश्वन्न स्तोमैः क्रतुन्न भद्रँ हृदिस्पृशम् । ऋध्यामा तऽओहैः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। तम्। अद्य। अश्वम्। न। स्तोमैः। क्रतुम्। न। भद्रम्। हृदिऽस्पृशम्। ऋध्याम। ते। ओहैः॥७७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 77
    Acknowledgment

    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्युदेप्रमाणे पराक्रमी विद्वान, आपण (अश्‍वम्‌) (न) अश्‍वाप्रमाणे (क्रतुम्‌) (ज) बुद्धीप्रमाणे (भद्रम्‌) कल्याण करणारे आणि (हृदिस्पृशम्‌) हृदयाला भिडणारे (हृदय जिंकणारे) आहात. अशा (तम्‌) त्याला म्हणजे पूर्व मंत्रात उल्लेखिलेल्या आपणाला आम्ही (सामान्यजन) (स्तोमै:) स्तुतीद्वारा (अद्य) आज प्राप्त होऊन (ते) आपल्या (आहै) आदी गुणांद्वारे (ऋध्याम) -------------

    भावार्थ - missing

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top