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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 32
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    येना॑ पावक॒ चक्ष॑सा भुर॒णयन्तं॒ जनाँ॒२ऽअनु॑।त्वं व॑रुण॒ पश्य॑सि॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। पा॒व॒क॒। चक्ष॑सा। भु॒र॒ण्यन्त॑म्। जना॑न्। अनु॑ ॥ त्वम्। व॒रु॒॒ण॒। पश्य॑सि ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तञ्जनाँऽअनु । त्वँवरुण पश्यसि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। पावक। चक्षसा। भुरण्यन्तम्। जनान्। अनु॥ त्वम्। वरुण। पश्यसि॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 32
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (पावक) पवित्रकर्ता (वरुण) श्रेष्ठ विद्वान वा राजन्, (त्वम्) आपण (येन) आपल्या ज्या (चक्षसा) सावध दृष्टीने अथवा उपदेशाद्वारे (भुरण्यन्तम्) प्रजाजनांची /विद्वानांची रक्षा करीत त्यांना (अनु, पश्यसि) अनुकूल वा उदार दृष्टीने पाहता, त्या दृष्टीने (जनान्) आम्हा (सामान्यजनांना) पहा आणि आमचेही कर्तव्य आहे की आम्ही आपल्याशी सदैव अनुकूल राहून वागावे. ॥32॥

    भावार्थ - भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. राजा आणि राजपुरुष ज्याप्रकारे प्रजेशी वागले पाहिजे, प्रजाजनांनीही राजपुरुषांशी प्रामाणिकपणे व सहकार्याने वागावे. ॥32॥

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