अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 18
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
च॒रुं पञ्च॑बिलमु॒खं घ॒र्मो॒भीन्धे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठच॒रुम् । पञ्च॑ऽबिलम् । उ॒खम् । घ॒र्म: । अ॒भि । इ॒न्धे॒ ॥३.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
चरुं पञ्चबिलमुखं घर्मोभीन्धे ॥
स्वर रहित पद पाठचरुम् । पञ्चऽबिलम् । उखम् । घर्म: । अभि । इन्धे ॥३.१८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 18
भाषार्थ -
(पञ्चविलम्) पांच बिलों अर्थात् छिद्रों वाली (चरुम् उखम्) ओदन परिपाकार्थ कुम्भी रूपी उषा को (घर्मः) काष्ठाग्नि की गर्मी (अभीन्धे) अभितप्त करती हैं। तथा भूतपञ्चकरूपी पांच बिलों वाली पृथिवी को (घर्मः) सूर्य की गर्मी (अभीन्धे) अभितप्त करती है।
टिप्पणी -
[पृथिवी= कुम्भी (मन्त्र ११)। कृष्योदन के परिपाक के लिये कुम्भी अर्थात् देगची पर के ढकने में ५ छिद्र (blank) होने चाहिये, ऐसी विधि प्रतीत होती है। इस विधि द्वारा कुम्भी की भाप का नियन्त्रण होता रहता है।]