अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 28
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - साम्नी बृहती
सूक्तम् - ओदन सूक्त
परा॑ञ्चं चैनं॒ प्राशीः॑ प्रा॒णास्त्वा॑ हास्य॒न्तीत्ये॑नमाह ॥
स्वर सहित पद पाठपरा॑ञ्चम् । च॒ । ए॒न॒म् । प्र॒ऽआशी॑: । प्रा॒णा: । त्वा॒ । हा॒स्य॒न्ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥३.२८॥
स्वर रहित मन्त्र
पराञ्चं चैनं प्राशीः प्राणास्त्वा हास्यन्तीत्येनमाह ॥
स्वर रहित पद पाठपराञ्चम् । च । एनम् । प्रऽआशी: । प्राणा: । त्वा । हास्यन्ति । इति । एनम् । आह ॥३.२८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 28
भाषार्थ -
(पराञ्चम्१, च, एनम्) इस पराक्-ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (त्वा प्राणाः हास्यन्ति) तुझे प्राण छोड़ जायेंगे (इति, एनम्, आह) इस प्रकार इस जगद् भोक्ता को कहे।
टिप्पणी -
[मन्त्र में प्राणशक्ति के ह्रास का वर्णन हुआ है। भोग प्रधान जीवन में जीवनीय शक्ति का ह्रास होता ही है। जीवनीयशक्ति है, प्राण। "भोगे रोगभयम्", भोगों द्वारा रोगों का भय होता है, और रोगों के कारण प्राणशक्ति कम होती जाती है। इसलिये मन्त्र में अधिक भोग विरत रहने का निर्देश किया है।][१."पराञ्चम् और प्रत्यञ्चम" शब्दों के अर्थों पर औपनिषद श्लोक अधिक प्रकाश डालता है यथा “पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयम्भूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन्। कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥” (कठ० २/४/१)। मन्त्र २८, २९ में पठित पराञ्चम् और प्रत्यञ्चम् और श्लोक पठित पराञ्चि खानि, पराङ् पश्यति; तथा प्रत्यगात्मानम्, शब्दों में परस्पर साम्य देखना चाहिये।]