अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 50
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुर्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
ए॒तद्वै ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टपं॒ यदो॑द॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । वै । ब्र॒ध्नस्य॑ । वि॒ष्टप॑म् । यत् । ओ॒द॒न: ॥५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्वै ब्रध्नस्य विष्टपं यदोदनः ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । वै । ब्रध्नस्य । विष्टपम् । यत् । ओदन: ॥५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 50
भाषार्थ -
(यद्) जो कि (ओदनः) ओदन अर्थात् ब्रह्मौदन है, (एतद्) यह (वै) निश्चय से (ब्रध्नस्य) महान् सूर्य का (विष्टपम्) प्रवेश स्थान है।
टिप्पणी -
[ब्रध्नस्य= ब्रध्नो महान् सूर्यः (उणा० ३।५, महर्षि दयानन्द)। ब्रध्न शब्द "बन्ध बन्धने” का रूप है। महान सूर्य ने ग्रह-उपग्रह आदि को अपने साथ आकर्षक द्वारा बान्धा हुआ है। विष्टपम् = विशन्ति यत्रेति (उणा० ३।१४५, महर्षि दयानन्द)। सूर्य तथा लोकलोकान्तर ब्रह्म में प्रविष्ट हैं, अतः ब्रह्म विष्टप है]।