अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 53
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - आसुरी बृहती
सूक्तम् - ओदन सूक्त
तेषां॑ प्र॒ज्ञाना॑य य॒ज्ञम॑सृजत ॥
स्वर सहित पद पाठतेषा॑म् । प्र॒ऽज्ञाना॑य । य॒ज्ञम् । अ॒सृ॒ज॒त॒ ॥५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तेषां प्रज्ञानाय यज्ञमसृजत ॥
स्वर रहित पद पाठतेषाम् । प्रऽज्ञानाय । यज्ञम् । असृजत ॥५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 53
भाषार्थ -
(तेषाम्) उन ३३ लोकों के (प्रज्ञानाय) ज्ञान के लिए प्रजापति ने (यज्ञम्) यज्ञ की (असृजत) सृष्टि की।
टिप्पणी -
[प्रजापति ने संसार-यज्ञ को रचा, ताकि इस यज्ञ के घटक ३३ लोकों का यथार्थ स्वरूप जाना जा सके१]। [(१) सृष्टि-यज्ञ को यहाँ यज्ञ कहा है। सृष्टि के होते ही सृष्टि के घटक अवयवों का प्रज्ञान हो सकता है। ज्ञेय वस्तु के अभाव में ज्ञेय का ज्ञान नहीं हो सकता।]