अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - आसुरी पङ्क्तिः
सूक्तम् - ओदन सूक्त
कब्रु॑ फली॒कर॑णाः॒ शरो॒ऽभ्रम् ॥
स्वर सहित पद पाठकब्रु॑ । फ॒ली॒ऽकर॑णा: । शर॑: । अ॒भ्रम् ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
कब्रु फलीकरणाः शरोऽभ्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठकब्रु । फलीऽकरणा: । शर: । अभ्रम् ॥३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(कब्रु) हैं (फलीकरणाः) तण्डुल सम्बन्धी तिनके आदि के स्थानी, (अभ्रम्) मेघ है (शरः) उबलते तण्डुलों की झाग के स्थानी।
टिप्पणी -
[कब्रु के स्थान में सायण ने "कभ्रु" पाठ मान कर, "कं शिर एब भ्रूवौ यस्य प्राणिजातस्य तत् कभ्रु", इस विग्रह द्वारा आंखों के ऊपर के भौएं अर्थ किया है (Eye brows)। "कब्रु" पद का रूपान्तर "कंबर" तथा "कंबु" शब्द प्रतीत होते हैं, जिन के अर्थ हैं "Variegted color; तथा spotted (आप्टे), अर्थात् विविधरंगी, तथा बिन्दुओं वाला, धब्बों वाला पदार्थ सम्भवतः प्रकृतिरूप पदार्थ। "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्" (श्वेता० उप० ४।५) द्वारा प्रकृति-पदार्थ को विविधरंगी दर्शाया है। अवहत व्रीहि भी, समूहरूप में, विविधरंगी होते है, तण्डुल तुष, तिनके - इन का मिश्रित रूप विविधरंगी ही होता है, इसे फलीकरणावस्था कह सकते हैं। "शरः" का अर्थ मलाई भी होता है जोकि उबलते तण्डुलों की झाग की तरह सुफैद होती है। इस सादृश्य से झाग को "शर" कहा हो। कब्रु, अभु का सम्बन्ध परमेश्वरोदन के साथ हैं, और फलीकरणों और झाग (शर) का कृष्योदन के साथ। इस प्रकार परस्पर प्रतिरूपता है। "अदिति" भी प्रकृति है, अवखण्डन-रहित होने से, और कब्रु भी प्रकृति है विविधरंगी होने से। गुणभेद के कारण प्रकृति का वर्णन भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा हुआ है। "कब्रु" के अर्थ पर अनुसन्धान अपेक्षित है]