अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 52
सूक्त - अथर्वा
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - भुरिक्साम्नी त्रिपदा त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ओदन सूक्त
ए॒तस्मा॒द्वा ओ॑द॒नात्त्रय॑स्त्रिंशतं लो॒कान्निर॑मिमीत प्र॒जाप॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तस्मा॑त् । वै । ओ॒द॒नात् । त्रय॑:ऽत्रिंशतम् । लो॒कान् । नि: । अ॒मि॒मी॒त॒ । प्र॒जाऽप॑ति: ॥५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
एतस्माद्वा ओदनात्त्रयस्त्रिंशतं लोकान्निरमिमीत प्रजापतिः ॥
स्वर रहित पद पाठएतस्मात् । वै । ओदनात् । त्रय:ऽत्रिंशतम् । लोकान् । नि: । अमिमीत । प्रजाऽपति: ॥५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 52
भाषार्थ -
(वै) निश्चय से (एतस्मात्, ओदनात) इस निज-ब्रह्मौदन स्वरूप से, (प्रजापतिः१) प्रजापतिरूप में (त्रयस्त्रिंशतं लोकान्) ३३ लोकों को (निरमिमीत) उसने निर्मित किया, अर्थात् ३३ देवों के ३३ स्थानों को नियत किया।
टिप्पणी -
[१. प्रलयावशिष्ट ब्रह्म ने सृष्ट्युत्पादनार्थ प्रजापतिरूप हो कर ३३ लोकों का निर्माण किया। प्रलयावस्था में ब्रह्म प्रजापति नहीं होता। प्रजाओं के होने पर ही ब्रह्म का प्रजापतिरूप आभिर्भूत होता है। प्रलयावस्था में प्रजाएं प्रकृतिलीन होती हैं। प्रजा=उत्पन्न पदार्थ। मन्त्र में ३३ लोक कहे हैं। वेदों में अन्यत्र ३३ देवों का वर्णन होता है, लोकों का नहीं। सम्भवतः "लोकृ दर्शने" अर्थ की दृष्टि से "लोकान्" का अभिप्राय हो- दर्शनीय ३३ देव, अर्थात् ८ वसु, ११ रुद्र, १२ आदित्य और प्रजापति, तथा इन्द्र (विद्युत)।]