अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 32
तत॑श्चैनम॒न्येन॑ शी॒र्ष्णा प्राशी॒र्येन॑ चै॒तं पूर्व॒ ऋष॑यः॒ प्राश्न॑न्। ज्ये॑ष्ठ॒तस्ते॑ प्र॒जा म॑रिष्य॒तीत्ये॑नमाह। तं वा अ॒हं ना॒र्वाञ्चं॒ न परा॑ञ्चं॒ न प्र॒त्यञ्च॑म्। बृ॑ह॒स्पति॑ना शी॒र्ष्णा। तेनै॑नं॒ प्राशि॑षं॒ तेनै॑नमजीगमम्। ए॒ष वा ओ॑द॒नः सर्वा॑ङ्गः॒ सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः। सर्वा॑ङ्ग ए॒व सर्व॑परुः॒ सर्व॑तनूः॒ सं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत॑: । च॒ । ए॒न॒म् । अ॒न्येन॑ । शी॒र्ष्णा । प्र॒ऽआशी॑: । येन॑ । च॒ । ए॒तम् । पूर्वे॑ । ऋष॑य: । प्र॒ऽआश्न॑न् ॥ ज्ये॒ष्ठ॒त: । ते॒ । प्र॒ऽजा । म॒रि॒ष्य॒ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । आ॒ह॒ ॥ तम् । वै । अ॒हम् । न । अ॒र्वाञ्च॑म् । न । परा॑ञ्चम् । न । प्र॒त्यञ्च॑म् ॥ बृह॒स्पती॑ना । शी॒र्ष्णा ॥ तेन॑ । ए॒न॒म् । प्र । आ॒शि॒ष॒म् । तेन॑ । ए॒न॒म् । अ॒जी॒ग॒म॒म् ॥ ए॒ष: । वै । ओ॒द॒न: । सर्व॑ऽअङ्ग: । सर्व॑ऽतनू: । सर्व॑ऽअङ्ग: । ए॒व । सर्व॑ऽपरु: । सर्व॑ऽतनू: । सम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ततश्चैनमन्येन शीर्ष्णा प्राशीर्येन चैतं पूर्व ऋषयः प्राश्नन्। ज्येष्ठतस्ते प्रजा मरिष्यतीत्येनमाह। तं वा अहं नार्वाञ्चं न पराञ्चं न प्रत्यञ्चम्। बृहस्पतिना शीर्ष्णा। तेनैनं प्राशिषं तेनैनमजीगमम्। एष वा ओदनः सर्वाङ्गः सर्वपरुः सर्वतनूः। सर्वाङ्ग एव सर्वपरुः सर्वतनूः सं भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठतत: । च । एनम् । अन्येन । शीर्ष्णा । प्रऽआशी: । येन । च । एतम् । पूर्वे । ऋषय: । प्रऽआश्नन् ॥ ज्येष्ठत: । ते । प्रऽजा । मरिष्यति । इति । एनम् । आह ॥ तम् । वै । अहम् । न । अर्वाञ्चम् । न । पराञ्चम् । न । प्रत्यञ्चम् ॥ बृहस्पतीना । शीर्ष्णा ॥ तेन । एनम् । प्र । आशिषम् । तेन । एनम् । अजीगमम् ॥ एष: । वै । ओदन: । सर्वऽअङ्ग: । सर्वऽतनू: । सर्वऽअङ्ग: । एव । सर्वऽपरु: । सर्वऽतनू: । सम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 32
भाषार्थ -
(पूर्वे ऋषयः) पूर्व काल के या सद्गुणों से पूरित ऋषियों ने (येन शीर्ष्णा) जिस सिर से (एतम्) इस ओदन का (प्राश्नन्) प्राशन किया है (ततः) उस से (च) यदि (अन्येन शीर्ष्णा) भिन्न सिर से (एनम्) इस ओदन का (प्राशीः) तूने प्राशन किया है, तो (ते प्रजा) तेरी प्रजा (ज्येष्ठतः) ज्येष्ठ अंग से प्रारम्भ कर के (मरिष्यति) मर जायेगी (इति) यह (एनम्) इस प्राशन करने वाले को कहे। (तम्) उस ओदन को (वै) निश्चय से, (न अर्वाञ्चम्१) न इधर गति करते हुए को, (न पराञ्चम्१) न दूर के लोकों में गति करते हुए को, (न प्रत्यञ्चम्१) न प्रतीक अर्थात् प्रतिकूल भाव में रहते हुए को (अहम्) मैंने प्राशित किया है। (बृहस्पतिना शीर्ष्णा) बृहस्पति रूप सिर से मैं ने उस ओदन का प्राशन किया हैं। (तेन) उस सिर से (एनम्) इस ओदन का (प्राशिषम्) मैं ने प्राशन किया है, (तेन) उस सिर द्वारा (एनम्) इस ओदन को (अजीगमम्) मैंने प्राप्त किया है। (एषः) यह ओदन (वै) निश्चय से (सर्वाङ्गः) सर्वाङ्ग सम्पूर्ण है, (सर्वपरुः) सब सन्धियों से युक्त हैं, (सर्वतनूः) सम्पूर्ण शरीर अर्थात् स्वरूप वाला है। (एषः) यह प्राशन कर्ता भी (सर्वाङ्गः, सर्वपरुः, सर्वतनूः) सर्वाङ्ग सम्पूर्ण, सब सन्धियों से युक्त, सम्पूर्ण शरीर वाला (स भवति) हो जाता (यः) जो कि (एवम्) इस प्रकार (वेद) ओदन के प्राशन के तत्त्व को (वेद) जानता है।
टिप्पणी -
[पूर्वे ऋषयः= पुर्व पूरणे, सद्गुणों से सम्पूर्ण। प्रजा ज्येष्ठतः=ब्रह्मौदन का प्राशन यदि बृहस्पतिरूप सिर द्वारा नहीं किया तो प्राशन कर्ता को अभिज्ञ व्यक्ति कहा है कि तेरी प्रजा जो कि तेरे शरीर के भिन्न-भिन्न अवयव और अङ्ग हैं, उन में से ज्येष्ठ अङ्ग जोकि "सिर" है, वहां से प्रारम्भ कर, अवयव और अङ्ग-प्रत्यङ्गरूपी तेरी प्रजा सदा पुनर्जन्मों द्वारा मृत्यु का ग्रास बनी रहेगी। शरीर है जीवात्मा की पुरी और इस पुरी में रहने वाले अङ्ग-प्रत्यङ्ग तथा अन्य शक्तियां जीवात्मा की प्रजाएं हैं। सिर के विकृत हो जाने पर सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग आदि विकृत हो कर विनाशोन्मुख हो जाते हैं। इस से विधि पूर्वक ब्रह्मौदन के आध्यात्मिक प्राशन के लिये प्राशनकर्ता को प्रेरित किया गया है। इसलिये ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन किया है कि ब्रह्म न केवल इधर अर्थात् पृथिवी पर सक्रिय हो रहा है, न केवल दूर के लोकों में ही सक्रिय हो रहा है, अपितु वह सर्वव्यापक हो कर सक्रिय हो रहा है। यथा “तद् दूरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः” (यजु० ४०/५)। प्राशनकर्ता यह कहता है कि मैंने प्रत्यङ्भाव अर्थात् प्रतिकूल भाव में रहते हुए ब्रह्मौदन का प्राशन नहीं किया, अपितु उसे सर्वानुग्रहकारीरूप में जान कर उसका मैंने प्राशन किया है। बृहस्पतिना शीर्ष्णा= बृहस्पति और ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर का पारस्परिक सम्बन्ध है। (अथर्व० १५/१०/४,५) के अनुसार बृहस्पति में ब्रह्म का प्रवेश कहा है। प्राशनकर्ता कहता है कि मैंने सिर को बृहस्पति जान कर ब्रह्मौदन का प्राशन किया है, अर्थात् मेरा सिर सामान्य सिर नहीं, अपितु यह बृहस्पतिरूप है, जिस में कि ब्रह्म प्रविष्ट है। इसी प्रविष्ट ब्रह्म का प्राशन मैंने सिर द्वारा किया है। सिर में आज्ञाचक्र तथा सहस्रारचक्र हैं। इन चक्रों में परमेश्वर अर्थात् ब्रह्मौदन का प्राशन योगिजन करते हैं। यदि सिर द्वारा ब्रह्मौदन का प्राशन अर्थात् साक्षात् कर, सिर में ब्रह्मप्रधान विचार और संकल्प स्थित हो जाये, तो समग्र शरीर और शरीरावयव ब्राह्मी शक्ति से आप्लुत हो जायें और खाना-पीना आदि सब व्यवहार ब्राह्म शक्ति से आविष्ट हो जायें। ब्रह्मौदन को सर्वाङ्ग सम्पूर्ण कहा है, इस का प्राशनकर्ता भी सर्वाङ्ग सम्पूर्ण हो जाता है। यह फल निर्देश किया है। अथर्व० ११।३।१ में "शिरः" से अभिप्राय कृष्योदन के प्राशिता का है। क्यों कि वहां औदन-ब्रह्म और कृष्योदन में प्रतिरूपता दर्शाई है। जीवन में दो प्रकार के ओदनों की आवश्यकता है। एक की तो शारीरिक जीवन के लिये आवश्यकता है, और दूसरे की आत्मिक जीवन के लिये। प्राकृतिक-ओदन शरीरोपयोगी है, और ब्रह्मौदन आत्मोपयोगी है। इसलिये इस ओदन-सूक्त में विविध ओदन का संमिश्रित वर्णन किया गया है। सात्विक और ब्रह्मप्रधान जीवन के लिये उभयविध ओदन का सेवन प्रतिदिन आवश्यक है। जीवन भी तो प्रकृति और जीवात्मा का संमिश्रित रूप है]। [१. कृष्योदन पक्ष में, भोजन के नियत काल से अर्वाक-काल में [अर्वाञ्चम्] तथा पराक् काल में (पराञ्चम्) और क्षुधा के अभाव में प्रतिकूलरूप हुए (प्रत्यञ्चम्) ओदन के प्राशन का निषेध किया है। इस प्राशन को विचार पूर्वक करना चाहिये (शीर्ष्णा)। साथ ही मन्त्र में यह भी कहा है कि [कृष्योदन के सात्विक, नीरोग और रोगनाशक होने से, भोजन की दृष्टि से] कृष्योदन सर्वाङ्ग सम्पूर्ण है। कृष्योदन के सम्बन्ध में यही भावना अगले मन्त्रों में भी जाननी चाहिये। देखो मन्त्र ३५ की व्याख्या।]