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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 54
    सूक्त - अथर्वा देवता - मन्त्रोक्ताः छन्दः - द्विपदा भुरिक्साम्नी बृहती सूक्तम् - ओदन सूक्त

    स य ए॒वं वि॒दुष॑ उपद्र॒ष्टा भव॑ति प्रा॒णं रु॑णद्धि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । य: । ए॒वम् । वि॒दुष॑: । उ॒प॒ऽद्र॒ष्टा । भ॒व॒ति॒ । प्रा॒णम् । रु॒ण॒ध्दि॒ ॥५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स य एवं विदुष उपद्रष्टा भवति प्राणं रुणद्धि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । य: । एवम् । विदुष: । उपऽद्रष्टा । भवति । प्राणम् । रुणध्दि ॥५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 54

    भाषार्थ -
    (सः) वह (यः) जो पुरुष (एवं विदुषः) इस प्रकार के ब्रह्मज्ञ का, (उपद्रष्टा भवति) उस के समीप रह कर, उसका दर्शन ही करता रहता है [उस के द्वारा उपदिष्ट मार्ग के अनुसार जीवनचर्या नहीं करता] वह (प्राणम्) निज प्राण अर्थात् जीवन में (रुणद्धि) रुकावट डालता है।

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