अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - त्रिपदा समविषमा गायत्री
सूक्तम् - ओदन सूक्त
द्यावा॑पृथि॒वी श्रो॒त्रे सू॑र्याचन्द्र॒मसा॒वक्षि॑णी सप्तऋ॒षयः॑ प्राणापा॒नाः ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । श्रोत्रे॒ इति॑ । सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ । अक्षि॑णी॒ इति॑ । स॒प्त॒ऽऋ॒षय॑: । प्रा॒णा॒पा॒ना: ॥३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावापृथिवी श्रोत्रे सूर्याचन्द्रमसावक्षिणी सप्तऋषयः प्राणापानाः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावापृथिवी इति । श्रोत्रे इति । सूर्याचन्द्रमसौ । अक्षिणी इति । सप्तऽऋषय: । प्राणापाना: ॥३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
उस ओदन के (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (श्रोत्रे) दो श्रोत्रस्थानी हैं, (सूर्याचन्द्रमसौ) सूर्य और चन्द्रमा (अक्षिणी) दो आंखों स्थानी हैं, (सप्त ऋषयः) द्युलोकस्थ सप्तऋषि [ursa major] अथवा शरीरस्थ सात ऋषि (प्राणापानाः) प्राण और अपान स्थानी हैं।
टिप्पणी -
[द्यावापृथिवी को क्रन्दसी भी कहते हैं, यथा "यं क्रन्दसीsअवसा तस्तभाने" (यजु० ३२।७)। इस की व्याख्या में, क्रन्दसी= द्यावापृथिव्यौ (महीधर)। क्रन्दसी इसलिये कि द्युलोक और पृथिवीलोक आक्रन्दन आदि शब्दों के आश्रय हैं। दो श्रोत्र भी आक्रन्दन आदि के आश्रय हैं। सूर्याचन्द्रसौ= सूर्य और चन्द्रमा के कारण प्राणियों की आंखें देखती हैं। अतः ये दो आंखें हैं। यथा "यस्य सूर्यश्चक्षुश्चन्द्रमाश्च पुनर्णवः” (अथर्व० १०/७/३३), अर्थात् सूर्य और चद्रमा को परमेश्वर ने चक्षु के रूप में रचा है। सप्त ऋषयः = शरीरस्थ१ सात ऋषि हैं, ५ ज्ञानेन्द्रियां, १ मन और विद्या (निरुक्त १२/४/३५)। जब तक ये सात ऋषि शरीर में विद्यमान रहते हैं, तब तक प्राण-अपान क्रियाएं होती हैं। द्युलोकस्थ सप्तर्षि मण्डल का प्राणापान के साथ सम्बन्ध विचारणीय है]।[१. "सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे" (यजु० ३४/५५) । ]