अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 3/ मन्त्र 31
सूक्त - अथर्वा
देवता - बार्हस्पत्यौदनः
छन्दः - अल्पशः पङ्क्तिरुत याजुषी
सूक्तम् - ओदन सूक्त
ओ॑द॒न ए॒वौद॒नं प्राशी॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठओ॒द॒न: । ए॒व । ओ॒द॒नम् । प्र । आ॒शी॒त् ॥३.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओदन एवौदनं प्राशीत् ॥
स्वर रहित पद पाठओदन: । एव । ओदनम् । प्र । आशीत् ॥३.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 3; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(ओदनः एव) ओदन ने ही (ओदनम्) ओदन का (प्राशीत्) प्राशन किया है।
टिप्पणी -
[प्राशीत् = प्र + अश (भोजने) + लुङ्। अभिप्राय यह है कि शरीर ओदन है, क्योंकि यह ओदन का ही विकृतरूप है। यथा "अन्नाद् रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषः अन्नरसमयः" (तैत्तिरीयोपनिषद्)। ओदन है अन्न, अन्न से उत्पन्न होता है रेतस् [वीर्य], रेतस् से उत्पन्न होता है पुरुष [शरीर], इसलिये पुरुष [शरीर] अन्नरसमय है। इस अन्न या ओदन रूपी शरीर ने [निज आवश्यकतानुसार, न कि भोग भावना से] ओदन अर्थात् प्राकृतिक-ओदन का प्राशन किया है। इसलिये ओदन ने ही ओदन का प्राशन किया है; अतः इस प्राशन में कोई दोष नहीं। और आत्मस्वरूप मैं ने तो आध्यात्मिक "ब्रह्मौदन" का ही प्राशन किया है; "ब्रह्मौदन" (अथर्व० ११/१/२०)। यथा "ब्रह्मौदनं विश्वजितं पचामि शृण्वन्तु मे श्रद्दधानस्य देवाः" (अथर्व० ४/३५/७) प्राकृतिक ओदन का नहीं]।