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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 22
    ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः देवता - विश्वकर्मा देवता छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    1

    विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॑ वावृधा॒नः स्व॒यं य॑जस्व पृथि॒वीमु॒त द्याम्। मुह्य॑न्त्व॒न्येऽअ॒भितः॑ स॒पत्ना॑ऽइ॒हास्माकं॑ म॒घवा॑ सू॒रिर॑स्तु॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्व॑कर्म॒न्निति॒ विश्व॑ऽकर्मन्। ह॒विषा॑। वा॒वृ॒धा॒नः। व॒वृ॒धा॒न इति॑ ववृधा॒नः। स्व॒यम्। य॒ज॒स्व॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॒त। द्याम्। मुह्य॑न्तु। अ॒न्ये। अ॒भितः॑। स॒पत्ना॒ इति॑ स॒ऽपत्नाः॑। इ॒ह। अ॒स्माक॑म्। म॒घवेति॑ म॒घऽवा॑। सू॒रिः। अ॒स्तु॒ ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वकर्मन्हविषा वावृधानः स्वयँयजस्व पृथिवीमुत द्याम् । मुह्यन्त्वन्येऽअभितो सपत्नाऽइहास्माकम्मघवा सूरिरस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वकर्मन्निति विश्वऽकर्मन्। हविषा। वावृधानः। ववृधान इति ववृधानः। स्वयम्। यजस्व। पृथिवीम्। उत। द्याम्। मुह्यन्तु। अन्ये। अभितः। सपत्ना इति सऽपत्नाः। इह। अस्माकम्। मघवेति मघऽवा। सूरिः। अस्तु॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 22
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    भावार्थ -
    राजा के पक्ष में- हे ( विश्वकर्मन् ) समस्त राष्ट्र के विधात: ! या राष्ट्र के समस्त उत्तम कर्मों के कर्त्तः ! तू ( हविषा ) कर के आदान और राष्ट्रों के विजय के कार्यों से ( वावृधानः ) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ ( स्वयं ) अपने आप सामर्थ्य से ( पृथिवीम् उत द्याम् ) पृथिवी और सूर्य के समान प्रजा और तेजस्वी राजा दोनों के विभागों को ( यजस्व ) सुसंगत, संगठित कर । पर उनको ऐसे मित्र भाव में बांधे रख जिससे ( अभितः ) चारों ओर के ( अन्ये सपत्ना: ) और दूसरे शत्रु गण ( मुह्यन्तु ) मोह में पड़े रहें । वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जायं और फोड़ फाड़ करने में असमर्थ होकर लाचार बने रहें । और ( इह ) इस राष्ट्र में ( अस्माकं ) हमारे बीच में ( मघवा ) धन ऐश्वर्य से सम्पन्न पुरुष ( सूरि: ) विद्वान् ( अस्तु ) हो वह मूर्ख न रहे जिससे शत्रु के बहकावे में न आ जावे । परमेश्वर के पक्ष में-- ( हविषा ) समस्त संसार को अपने वश करने वाले सामर्थ्य से ( वावृधान: ) बढ़ता हुआ है ( विश्वकर्मन् ) विश्व के कर्तः ! परमेश्वर ! तू ( पृथिवीं द्याम् उत स्वयं यजस्व ) द्यौ और पृथिवी को परस्पर सुसंगत करता, दोनों को एक दूसरे के आश्रित करता है । ( अन्ये सपत्ना: ) अन्य समान पतित्व या ईश्वरत्व चाहने वाले बड़े ऐश्वर्यवान्, विभूतिमान् जीव भी तेरे इस महान् सामर्थ्य को देख कर मुग्ध होते हैं। कहते हैं कि तू ही ( इह ) यहां, इस संसार में हमारा ( मघवा) एकमात्र ईश्वर और ( सूरिः ) एकमात्र ज्ञानप्रद विद्वान् ( अस्तु ) है |

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