यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 23
ऋषिः - भुवनपुत्रो विश्वकर्मा ऋषिः
देवता - विश्वकर्मा देवता
छन्दः - भुरिगार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
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वा॒चस्पतिं॑ वि॒श्वक॑र्माणमू॒तये॑ मनो॒जुवं॒ वाजे॑ऽअ॒द्या हु॑वेम। स नो॒ विश्वा॑नि॒ हव॑नानि जोषद् वि॒श्वश॑म्भू॒रव॑से सा॒धुक॑र्मा॥२३॥
स्वर सहित पद पाठवा॒चः। पति॑म्। वि॒श्वक॑र्माण॒मिति॑ वि॒श्वऽक॑र्माणम्। ऊ॒तये॑। म॒नो॒जुव॒मिति॑ मनः॒ऽजुव॑म्। वाजे॑। अ॒द्य। हु॒वे॒म॒। सः। नः॒। विश्वा॑नि। हव॑नानि। जो॒ष॒त्। वि॒श्वश॑म्भू॒रिति॑ वि॒श्वऽश॑म्भूः। अव॑से। सा॒धुक॒र्मेति॑ सा॒धुऽक॑र्मा ॥२३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाचस्पतिँविश्वकर्माणमूतये मनोजुवँवाजेऽअद्या हुवेम । स नो विश्वानि हवनानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुकर्मा ॥
स्वर रहित पद पाठ
वाचः। पतिम्। विश्वकर्माणमिति विश्वऽकर्माणम्। ऊतये। मनोजुवमिति मनःऽजुवम्। वाजे। अद्य। हुवेम। सः। नः। विश्वानि। हवनानि। जोषत्। विश्वशम्भूरिति विश्वऽशम्भूः। अवसे। साधुकर्मेति साधुऽकर्मा॥२३॥
विषय - सर्वपालक, कल्याण कृत विश्वकर्मा और ईश्वर ।
भावार्थ -
राजा के पक्ष में - ( वाचस्पतिम् ) वाक्, वाणी, आज्ञा
वचनों, शासनों के स्वामी ( विश्वकर्माणम् ) राष्ट्र के समस्त कार्यों का प्रवर्तक ( मनोजुवम् ) मन के समान गति करनेवाली अर्थात् जिस प्रकार इन्द्रियों में और शरीर में मन, चेष्टा और चेतना का सञ्चार करता है उनको व्यवस्था में रखता और सब का भोग भी करता है, उसी प्रकार राष्ट्र के शासक अधिकारियों को सञ्चालन करने और उनको सचेत रखने और राष्ट्र शरीर से नाना भोग प्राप्त करने वाले राजा को हम ( अद्य ) आज, सदा ( ऊतये ) रक्षा के लिये ( हुवेम ) बुलाते हैं । ( सः ) वह ( नः ) हमारे ( विश्वा ) समस्त ( हवनानि ) आह्वानों और पुकारों को ( जोषत् ) प्रेम से श्रवण करता है। क्योंकि वह ( अवसे ) रक्षा करने के लिये ही ( विश्वशम्भूः ) समस्त राष्ट्र का कल्याण करने वाला और ( साधुकर्मा ) उत्तम कर्मों का करनेवाला है। वह रक्षा-कार्य से 'विश्वशम्भू' और साधुकर्मा होने से ही 'विश्वकर्मा' है।
ईश्वर-पक्ष में – ईश्वर-वाणी, वेद-वाणी, समस्त ज्ञान का स्वामी, विश्व का कर्त्ता और विश्व के समस्त कार्यों का भी कर्त्ता मनोगम्य है, उसको हम अपनी रक्षा के लिये पुकारते हैं। वह हमारे आत्मा की पापों से रक्षा करे । वह हमारी सब पुकारों को प्रेम से सुनता है । वह सब कल्याणकारी और श्रेष्ठ कर्म करने हारा, उपकारी है। विशेष व्याख्या देखो अ० ८ । ४५ ॥
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