यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 8
ऋषिः - वसुयुर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - आर्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
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अग्ने॑ पावक रो॒चिषा॑ म॒न्द्रया॑ देव जि॒ह्वया॑। आ दे॒वान् व॑क्षि॒ यक्षि॑ च॥८॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑। पा॒व॒क॒। रो॒चिषा॑। म॒न्द्रया॑। दे॒व॒। जि॒ह्वया॑। आ। दे॒वान्। व॒क्षि॒। यक्षि॑। च॒ ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने पावक रोचिषा मन्द्रया देव जिह्वया । आ देवान्वक्षि यक्षि च ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्ने। पावक। रोचिषा। मन्द्रया। देव। जिह्वया। आ। देवान्। वक्षि। यक्षि। च॥८॥
विषय - तेज, प्रभाव से शासन।
भावार्थ -
हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्नि के समान तेजस्विन्! राजन् ( पावक ) हृदयों को, एक राज्य तन्त्र को पवित्र करने हारे ! तू ( रोचिषा ) तेज से हे ( देव ) राजन् ! और ( मन्द्रया ) हर्षित करनेवाली, तृप्तिकारी, सुखद, गम्भीर ( जिह्वया ) जिह्वा वाणी से ( देवान् ) अन्य विद्वानों और राजाओं के प्रति ( वक्षि ) उपदेश करता और आज्ञा प्रदान करता और ( यक्षि च ) सत्संग करता और अन्य राजाओं को मित्र बनाता है । शत० ९ । १ । २ । ३० ।।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - तेज, प्रभाव से शासन। वसूयव ऋषयः । अग्निर्देवता । आर्षी गायत्री । षड्जः॥
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