यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 5
ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
1
हि॒मस्य॑ त्वा ज॒रायु॒णाग्ने॒ परि॑व्ययामसि। पा॒व॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳ शि॒वो भ॑व॥५॥
स्वर सहित पद पाठहि॒मस्य॑। त्वा॒। ज॒रायु॑णा। अग्ने॑। परि॑। व्य॒या॒म॒सि॒। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिमस्य त्वा जरायुणाग्ने परिव्ययामसि । पावकोऽअस्मभ्यँ शिवो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
हिमस्य। त्वा। जरायुणा। अग्ने। परि। व्ययामसि। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥५॥
विषय - सैवाल के दृष्टान्त से राजा की रक्षा शक्ति का वर्णन ।
भावार्थ -
( हिमस्य जरायुणा ) हिम, शीतल जल की जरायु, शैवाल जिस प्रकार तालाब को घेर लेती है और मंडूक आदि उसमें सुख से रहते उसी प्रकार हे ( अग्ने ) अग्ने ! संतापकारिन् ( त्वा ) तुझको ( हिमस्य ) हिम, पाला जिस प्रकार वनस्पतियों का नाश करता, जन्तुओं को कष्ट देता है, उसी प्रकार प्रजाओं के नाशकारी शत्रु के ( जरायुणा ) अन्त करने वाले बल से ( परि व्ययामसि ) हम तुझे चारों ओर से घेर लेते हैं । हे ( पावकः ) अग्नि के समान राज्य-कण्टकों को शोधन करनेहारे ! तू ( अस्मभ्यं शिवः भव ) हमारे लिये कल्याणकारी हो । शत० ९ । १ । २ । २६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता भुरिगार्षी गायत्री । षड्जः ॥
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