Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 68
    ऋषिः - विधृतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदार्ष्यनुस्टुप् स्वरः - गान्धारः
    1

    स्व॒र्यन्तो॒ नापे॑क्षन्त॒ऽआ द्या रो॑हन्ति॒ रोद॑सी। य॒ज्ञं ये वि॒श्वतो॑धार॒ꣳ सुवि॑द्वासो वितेनि॒रे॥६८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वः॑। यन्तः॑। न। अप॑। ई॒क्ष॒न्ते॒। आ। द्याम्। रो॒ह॒न्ति॒। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। य॒ज्ञम्। ये। वि॒श्वतो॑धार॒मिति॑ वि॒श्वतः॑ऽधारम्। सुवि॑द्वास॒ इति॒ सुवि॑द्वासः। वि॒ते॒नि॒र इति॑ विऽतेनि॒रे ॥६८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वर्यन्तो नापेक्षन्त आ द्याँ रोहन्ति रोदसी । यज्ञँये विश्वतोधारँ सुविद्वाँसो वितेनिरे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वः। यन्तः। न। अप। ईक्षन्ते। आ। द्याम्। रोहन्ति। रोदसी इति रोदसी। यज्ञम्। ये। विश्वतोधारमिति विश्वतःऽधारम्। सुविद्वास इति सुविद्वासः। वितेनिर इति विऽतेनिरे॥६८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 68
    Acknowledgment

    भावार्थ -
    ( ये ) जो ( सुविद्वांसः) उत्तम विद्वान् पुरुष ( विश्वतो धारम् ) सब तरफ बसने वाले प्रजाजनों को धारण करने वाले ( यज्ञं ) राष्ट्र व्यवस्था रूप सुसंगठित साम्राज्य को ( वितेनिरे ) विविध उपायों से विस्तृत करते हैं वे ( स्वः यन्तः ) सुखकारी साम्राज्य को प्राप्त करते हुए ( न अपेक्षन्ते ) नीचे की तरफ नहीं देखते । अथवा ( स्वः यन्तः ) परम मोक्ष को प्राप्त होते हुए योगियों के समान संसार के भोगों की ( न अपेक्षन्ते ) अपेक्षा नहीं करते, प्रत्युत ( रोदसी द्याम् ) समस्त पृथिवी के ऐश्वर्य को शत्रु बल को रोक लेने में समर्थ ( द्याम् ) सर्वोपरि विजयकारिणी शक्ति को ( आरोहन्ति ) प्राप्त हो जाते हैं। शत० ९ । २ । ३ । २७ ॥ योगी के पक्ष में- ( ये विद्वांसः ) जो विज्ञानी, योगीजन ( विश्वतो धारं यज्ञं ) समस्त जगत् के धारक, परम उपास्य परमेश्वर को ( वितेनिरे ) प्राप्त हो जाते हैं वे ( स्वर्यन्तः ) सुखमय परम मोक्ष को जाते हुए संसारभोगों की ( न अपेक्षन्ते ) अपेक्षा नहीं करते, उनपर नीचे दृष्टि नहीं डालते । प्रत्युत ( रोदसी ) जन्म मृत्यु के रोकने में समर्थ ( द्याम् ) प्रकाशमयी मोक्ष पदवी को ( आरोहन्ति ) प्राप्त करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अग्निर्देवता । निचृदार्ष्यनुष्टुप् । गांधारः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top